आज कुछ रचनात्मक हो जाये ....
हमारे ग्रुप गायें गुनगुनायें ने संगीत को हमेशा उपचार की तरह लिया है। हम शौकिया गीत गाने गुनगुनाने वाले सभी सदस्य साहित्य में भी रूचि और विशिष्टता रखते हैं। इसलिए हम समय - समय पर टास्क के रूप में लेखन को भी स्थान देते रहे हैं।
हमारे इस ग्रुप में किसी पर कोई बंधन नहीं। जब भी जिसे समय होता है गुनगुना लेते हैं , न हो तो सखियों के गाये गीत सुन लेते हैं। यदि बिल्कुल भी समय न हो तो बस "राम -राम " से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर लेते हैं।
यूँ कहें तो यह ग्रुप एक ऐसा परिवार है जहाँ हम छोटे - बड़े सब मिलकर गाने - गुनगुनाने के साथ - साथ अपने सुख -दुःख साझा करते हैं, कुछ कलात्मक करते हैं। एक दूसरे से सीखते सिखाते रहते हैं।
इसी शृंखला में ३० सितम्बर को हमारे द्वारा दिया गया टास्क -
गुरुवार - स्वयं की लिखी 8लाइनें जिनमें - धूप-छांव,साँझ -सबेरा,आगे-पीछे,मौन -आवाज, धरती - आकाश , सुख - दुःख में से 6 शब्द हों और उन शब्दों पर आधारित गीत
पर जिन सखियों की रचनाऐं प्राप्त हुईं उन्हें सहेजकर आप सभी से साझा कर रही हूँ.....
साँझ की बेला, दूर क्षितिज पर
सूरज ले रहा है विदा,अपनी धूप को सिमटा कर
लालिमा ले बादल ने पहन लिए रंगबिरंगी कपड़े
पंछी खेलते उड़ते,लौट चले अपने नीड़ को काम निपटा कर
पसरते ही छांह,आवाज हो गई मद्धम सबकी
मौन करने लगा तैयारी चीत्कार की
दुख को अपने साथ चिपटा कर
मैने जाते सूरज को देख आवाज लगाई
ये कहते कि कल जब आना नया सबेरा लाना
सुख के साथ तरबतर,लिपटा कर
---अर्चना चावजी
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कटी पतंग
ज़िंदगी की धूप छाँव में
सिहरती सिमटती चलती ही जा रही हूँ
सुख दुःख की उँगलियाँ थामे !
साँझ के साथ साथ मन में भी
अन्धेरा घिर आया है
चहुँ ओर पसरा मौन सहमा जाता है मुझे
प्रतीक्षा है सवेरा होने की,
पंछियों के कलरव की मधुर आवाज़ की
मंज़िल दूर है और राह लम्बी
थके हुए हौसले को झकझोर कर
कभी स्वप्न आगे खींचते हैं
तो कभी हताशा पीछे से डोर खींचती है
और मैं उड़ती ही जाती हूँ
डोर से कटी पतंग की तरह
कभी यहाँ तो कभी वहाँ !
---साधना वैद
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सुबह से धूप खिली थी
अब छाँव मिली है।
यादों ने सुख दिया तो
वर्तमान ने दुःख दे दिया।
आगे होता है क्या कुछ
तो मालूम नही?
,पीछे देखने से भी क्या फायदा।
सुबह का सूरज अगर तुम्हारा है
तो साँझ की खुशबू हमारी है।
मौन जब मुखरण होता है,
तो ॐ की आवाज गूंजती है।
---शोभना चौरे
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सबेरा हर दिन अंधेरे को चीरकर
आगे पीछे अनेक मौन संभावनाओं के साथ
आवाज देता है
दुख है तो सुख है
सुख है तो दुख है
यही चलता क्रम है
तो रुकने से क्या होगा हासिल ?
उठो,
खिड़की खोलो
नाउम्मीदी को धूप दिखाओ
और जो बीज डाले हैं
उनको सींचो
ज़िन्दगी दो
---रश्मि प्रभा
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कितने चमचमा रहे तुम
अब ऐ आकाश
सब मेरे दिल के तारे
मेरे अपने
खींच के ले गये
और सजा लिए अपने दामन में...
मन अंधियार हुआ मेरा
पर तुम्हें क्या
सुनो अब बस मुझे भी बुला लो
जहाँ मेरे अपने ले गए तुम
वहीं कहीं मुझे भी टिका दो
एक कोने में
और एक टिमटिमाता तारा बना लो न
आकाश.
---निरुपमा चौहान
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मै धरती बनूँ और तुम आकाश
फिर तुम्हें ओढ़ मै सोऊँ सारी रात
तुम आके मुझे आलिंगन करते नही
तो जगती फिरती मै फिर पूरी रात
जो तुम आ जाते एक बार
कर लेती मै सोलह श्रृंगार
फिर हर दिन साँझ- सवेरे
तेरे ही आगे -पीछे
हरदम काटती मै फेरे
और जब जब पसरे मौन चहुँ ओर मेरे
तब तब बन जाना तू आवाज मेरी ,मुझको घेरे
---अंजु(तितली)
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दुःखों की यवनिका उठ रही
सुख का सागर लहरा रहा
शाम बीतेगी रात बीतेगी
एक बाती तो जलाकर रखो।
सूरज का उजाला गहरा रहा
धूप में चलकर थके हो पथिक
मरीचिका में जल न ढूँढो
छाँव की तलाश जारी रखो
रेत पर उभरे हैं निशान पांव के
पता है लहरें बहा ले जायेंगी
न चले तो भी लहर तो आएगी
फिर से उकेरने का हौसला रखो।
योग्यता जन्म से नहीं मिल जाती
बनाना होता है अभ्यास से
काम लेना होता है हिम्मत से
क्रियाशील रहने की कला रखो
ठोकरों से डरकर चलना नही छोड़ा
तानों से डरकर जीना नहीं छोड़ा
जिंदगी पर हक़ तुम्हारा है
लोगो के कहने का भय हटाकर रखो।
---- ऋता शेखर मधु -----
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कब तक बाट निहारते भटकेगा अविराम !
रे मनवा अब लौट चल, घिर आयी है शाम ।
क्यों लहरों को कोसता ,यह तूफानी मौन !
नाम लिखा कर रेत पर अमिट हुआ है कौन !
अनजाने भेजा गया बिना पते का पत्र
अनबूझा यों उड रहा यत्र-तत्र-सर्वत्र ।
सीखा कभी न तैरना गहरा पारावार
दो अक्षर की नाव पर हम उतरे मँझधार ।
बुला रहा कोई कहीं ,था कोरा अन्दाज
पर्वत लौटाते रहे ,मेरी ही आवाज ।
अनजाना यह शहर है भीड भरा बाजार
कोई अपना सा हमें मिल जाता एक बार ।
टहनी-टहनी फूटती है पल्लव सी पीर
रोम-रोम चुभने लगा बनकर शूल समीर ।
पर्वत रहते बेअसर क्या वर्षा तूफान
क्या धरती की वेदना , क्या सागर का मान ।
रटीरटायी सी कोई एक उबाऊ सीख
रहे कैलेन्डर में सदा हम गुजरी तारीख ।
बूटे-बूटे में लिखा है यह किसका नाम
चप्पे-चप्पे में घुला रंग वही अभिराम ।
----गिरिजा कुलश्रेष्ठ
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गोद में सूरज लिए ,
उस पर कर आँचल की छांव
एक पग आगे एक पग पीछे ,
नापे सुबह और सांझ ।
मौन प्रार्थना हर पल करे वो,
पल पल रही उसको दुलार ।
एक स्मित में सिमटे उसके सुख ,
एक आवाज पे माँ जाए बलिहार ।
---रश्मि कुच्छल
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कितने सुख दुख साथ हो लिए
और कितने सुबह शाम की परछाईं की तरह बह गए!
एक रोज़ मैंने सुबह खिड़की खोली,
हवाओं की तरह दिन भर बहती रही
नरम गरम भावनाएँ, मन भिगोती रहीं!
शाम, चिड़िया की तरह आयी
और सारे भाव ले उड़ी!
मैं वही बस खाली की ख़ाली.... !
सुख दुख के रंगों को बिखरते उभरते यूँ ही देखती रही!
---पूजा अनिल
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अंबर झूमा धरती झूमी
झूमे चांद सितारे
जब से मेरे हाथों में
हाथ आए तुम्हारे
तुम्हारी नेह वृष्टि से
दुःखों का निवारण मिला
आई बहार जीवन में
सुखों को साधन मिला
आल्हादित मन गात
थर थर थरथराती है
उम्मीदों की बदली
उमड़ घुमड़ छाती है
मुझ जोगन के पास सिर्फ़
तुम्हारा स्नेह ही थाती है...
----संध्या शर्मा ----
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