व्हाट्सएप्प समूह 'गाएँ गुनगुनाएँ शौक से' पर हर हफ़्ते बारी बारी किसी एक सदस्य को हर दिन एक टास्क देना होता है जिसे बाकी के लोग अपनी सुविधानुसार करते हैं| किसी एक ही विषय पर सभी के फ़िल्मी, नॉन फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल होते हैं| कभी कभी किसी सृजन के लिए भी कहा जाता है| इस समूह में कुछ तो पहले से ही कोकिलकंठी थीं, कुछ बार बार के अभ्यास से उस जमात में शामिल हो चुकी हैं| टास्क पूरा करने में आदरणीया साधना वैद जी, शोभना जी, रश्मिप्रभा जी एवं गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की नियमितता देखते बनती है| समूह सिर्फ गायकी में ही नहीं, लेखन एवं रेखांकन में भी आगे है| कभी समूह की कमउम्र सदस्या आराधना मिश्रा एवं वरिष्ठ सदस्या उषा किरण जी की मास्टर पेंटिंग और बाकियों की नौसिखिया पेंटिंग की पोस्ट भी लगाऊँगी|
जनवरी के दूसरे सप्ताह में बेहतरीन ग़ज़लकार सुनीति बैस जी की बारी थी|एक दिन के टास्क में सबको अपने स्वर में कविताएँ पढ़नी थीं| अपनी सुविधानुसार सबने पढ़ीं| यह टास्क उस वक़्त बहुत महत्वपूर्ण बन गया जब सबकी रचनाओं पर उषा किरण जी की काव्यमयी, सुन्दर और रोचक टिप्पणियाँ आनी शुरु हो गयीं|
हम ब्लॉगर्स को तो बस सहेजने का बहाना मिलना चाहिए| समूह संस्थापक अर्चना चावजी ने कहा कि इसे ब्लॉग पर सहेजा जाना चाहिए| यह प्रस्ताव सभी को पसंद आया और यह पोस्ट बन गई आप सभी के लिए| इस ब्लॉग पर हम सभी अपने मेल से जुड़े हुए हैं| पोस्ट कोई भी लगा सकते हैं| यह कॉमन ब्लॉग बनाने का श्रेय जाता है मैड्रिड, स्पेन में रहने वाली पूजा अनिल जी को|
इस पोस्ट के पहले भाग में सबसे पहले सुनीति जी की फोटो होगी जिन्होंने टास्क दिया था| उसके बाद टिप्पणीकारा उषा किरण जी की फोटो...उसके बाद रचनाकार की फोटो के साथ उनकी रचनाएँ एवं उसके नीचे टिप्पणियाँ होंगीं|
पोस्ट के दूसरे भाग में उषा किरण जी की दो कविताएँ होंगीं...जिनपर बाकी सदस्यों की टिप्पणी होगी|
पोस्ट पसंद आए तो टिप्पणी द्वारा हमारा उत्साहवर्धन अवश्य करें |
---- ऋता शेखर 'मधु'
सुनीति बैस जी
उषा किरण जी
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प्रथम भाग- १७ रचनाकार
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१.१ खूँटा -- साधना वैद
तुमने ही तो कहा था
कि मुझे खुद को तलाशना होगा
अपने अन्दर छिपी तमाम अनछुई
अनगढ़ संभावनाओं को सँवार कर
स्वयं ही तराशना होगा
अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा
और अपनी मंजिल भी
खुद ही तय करनी होगी
मंजिल तक पहुँचने के लिए
अपने मार्ग को भी मुझे स्वयं ही
सुगम बनाना होगा
राह के सारे कंकड़ पत्थर चुन कर
मार्ग को अवरुद्ध करने वाले
सारे कटीले झाड़ झंखाड़ों को साफ़ कर !
मैंने तुम्हारे हर वचन को
पूरी निष्ठा के साथ शिरोधार्य किया !
हर आदेश निर्देश को पूरी ईमानदारी
और समर्पण भाव से निभाया !
देखो ! मेरे पास आओ !
मैंने तलाश लिया है खुद को
सँवार ली है अपने अन्दर छिपी प्रतिभा
निर्धारित कर लिया है अपना लक्ष्य
तय कर ली है अपनी मंजिल और
रास्ता भी सुगम बना लिया है !
लेकिन सब उद्दयम व्यर्थ हुआ जाता है
एक कदम भी मैं इस सुन्दर,
सजे संवरे प्रशस्त मार्ग पर
बढ़ा नहीं पा रही हूँ !
वर्षों से इसी एक स्थान पर
रहने के उपरान्त भी अभी तक
यह नहीं खोज पाई कि
जिन श्रंखलाओं ने इतनी लम्बी अवधि तक
मुझे एक कैदी की तरह यहाँ
निरुद्ध कर रखा है उसका खूँटा
कहाँ गढ़ा हुआ है
यहीं कहीं ज़मीन में
या फिर मेरे मन में !
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१.२ राम तुम बन जाओगे- साधना वैद
आओ तुमको मैं दिखाऊँ
मुट्ठियों में बंद कुछ
लम्हे सुनहरे,
और पढ़ लो
वक्त के जर्जर सफों पर
धुंध में लिपटे हुए
क़िस्से अधूरे !
आओ तुमको मैं सुनाऊँ
दर्द में डूबे हुए नग़मात
कुछ भूले हुए से,
और कुछ बेनाम रिश्ते
वर्जना की वेदियों पर
सर पटक कर आप ही
निष्प्राण हो
टूटे हुए से !
और मैं प्रेतात्मा सी
भटकती हूँ
उम्र के वीरान से इस
खंडहर में
कौन जाने कौन सी
उलझन में खोई,
देखती रहती हूँ
उसकी राह
जिसकी दृष्टि में
पाई नहीं
पहचान कोई !
बन चुकी हूँ इक शिला
मैं झेल कर
संताप इस निर्मम
जगत के,
और बेसुध सी कहीं
सोई पड़ी हूँ
वंचना की गोद में
धर कर सभी
अवसाद उस बेकल
विगत के !
देख लो इक बार
जो यह भग्न मंदिर
और इसमें प्रतिष्ठित
यह भग्न प्रतिमा
मुक्ति का वरदान पाकर
छूट जाउँगी सकल
इन बंधनों से,
राम तुम बन जाओगे
छूकर मुझे
और मुक्त हो जायेगी इक
शापित अहिल्या
छू लिया तुमने उसे
जो प्यार से निज
मृदुल कर से !
साधना वैद
टिप्पणी - उषा किरणखूँटा कविता में...साधना जी कहती हैं कि-तुमने ही तो कहा था कि अपना मार्ग तुमको खुद ही तलाशना और तराशना होगा…अपना लक्ष्य स्वयं चुन कर अपनी मंजिल खुद तय करनी होगी…अवरोधों को खुद ही दूर करना होगा…मैंने सब माना …सब किया लेकिन सब व्यर्थ हो गया है क्योंकि मेरी श्रंखलाएं जिस खूँटे से बंधी हैं वह खूँटा ही नहीं ढूँढ पा रही हूँ…वो यहीं कहीं जमीन में है या मेरे मन में? आह और वाह दोनों ही एक साथ निकल गए मेरे मुँह से साधना जी। आप खुद न कह कर भी हमारे ही मन से कहलवा देती है -`मन में ‘! सारे बंधन मन के ही तो हैं…मानो तो हैं वर्ना कुछ भी नहीं। आाभासी श्रंखलाओं और आभासी खूटों से ही तो बंधे रहते हैं हम ताउम्र…आपने प्रश्न के साथ समाधान भी दे ही दिया अप्रत्यक्ष रूप से…बहुत सुन्दर कविता…बहुत प्यार आपको😘😍🌹
समर्पित, विवश नारी की व्यथा व मुक्ति की कामना से छटपटाहट दिखाती बहुत सुन्दर कविता…साधना जी बहुत सुन्दर लिखती हैं आप🌹
****************
`राम तुम वन जाओगे’
उक्त कविता में साधना जी ने शापित अहिल्या की मार्मिक पुकार, अधीर प्रतीक्षा को बहुत सुन्दर करुण शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है।
बहुत सीमित शब्दों में, छोटे- छोटे वाक्यों से आपने अहिल्या की बेकल प्रतीक्षा को चित्रित सा कर दिया है।वे लिखती हैं-
`बन चुकी हूँ इक शिला
मैं झेल कर
संताप इस निर्मम
जगत के,
और बेसुध सी कहीं
सोई पड़ी हूँ
वंचना की गोद में
धर कर सभी
अवसाद उस बेकल
विगत के !…’
साधना जी की उक्त कविता में पीड़ा की जैसे धारा सी बहती है, बहुत कोमलता से । देखिए कितने सुन्दर शब्दों में वे लिखती हैं-
`आओ तुमको मैं सुनाऊँ
दर्द में डूबे हुए नग़मात
कुछ भूले हुए से,
और कुछ बेनाम रिश्ते
वर्जना की वेदियों पर
सर पटक कर आप ही
निष्प्राण हो
टूटे हुए से !…’
साधना जी का लेखन सदैव ही बहुत परिपक्व व गंभीर होता है…मुझे हमेशा आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
मैं इतनी सुन्दर कविता के लिए आपको बधाई देती हूँ…बहुत प्यार आपको🙏🥰
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२. 55 पार की औरते -- शोभना चौरे
55 के पार की औरतें
शीशे में अपना अक्स
देखने में सकुचाती है
अपना आत्म विश्वास
खोने लगती है
जब
जिसकी अर्धांगिनी होती है
जिनको जन्म दिया,
पालन किया वो
हर बात में उसे
टोका करते है
तब,
मैंने देखा है
सूजे हुए पाँव लेकर
पोर पोर टिसते
हुए अंगो के जोड़,
तब भी घरेलू इलाज
का हवाला देकर
डॉ के पास नही जाती
क्योंकि उसे मालूम है
ये उसके बजट के बाहर है
पूरा जीवन सर्फ साबुन
किफायत से उपयोग
करती रही
आज उनको पानी में
घुलते देख
खुद भी घुलती है।
अपनी बची हुई
जिंदगी में,
हाँ ये
सुख की बात है
55 पार की ओरतें
जो
रिटायर होने वाली है
अपनी नौकरी से
उनके मुख पर
आभा है,
क्योकि वो हमेशा
चेकअप करवाती
रही अपना
उसकी पेशानी
पर बल नही
क्योंकि
उसे साबुन सर्फ
में किफ़ायत
का अनुभव नही?
-शोभना चौरे
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टिप्पणी- उषा किरण
पचपन पार की औरतें…वाह❤️❤️❤️… कितना यथार्थ लिखा आपने…घरेलू औरतें गृहस्थी , बच्चों में खुद को खपा देती हैं खुद का ख्याल कब रख पाती हैं…परन्तु कामकाजी महिलाओं को किफायत में इतना नहीं खपाना पड़ता और वे खुद के स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक रहती हैं…मुझे यही समझ आया । शोभना जी आप बताएं कि क्या यही भाव है जो मैंने समझा ? मैं पूर्णतः समझना चाहती हूँ आपकी कविता के भावों को। मैंने कल किसी की कविता सुनी नहीं क्योंकि मैं बहुत ध्यान से पढ़ कर आत्मसात् करना ताहती थी तो आज सुबह ही चाय के कप के साथ सबको सुन कर समझने का प्रयास कर रही हूँ और भाव- सागर में गोते लगा रही हूँ 😍
उषा किरण
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३. वसीयत -- रश्मिप्रभा
बहुत सोचा
एक वसीयत लिख दूँ अपने बच्चों के नाम ...
घर के हर कोने देखे
छोटी छोटी सारी पोटलियाँ खोल डालीं
आलमीरे में शोभायमान लॉकर भी खोला
....... अपनी अमीरी पर मुस्कुराई !
छोटे छोटे कागज़ के कई टुकड़े मिले
गले लगकर कहते हुए - सॉरी माँ,लास्ट गलती है
अब नहीं दुहराएंगे ... हँस दो माँ '
अपनी खिलखिलाहट सुनाई दी ...
ओह ! यानी बहुत सारी हंसी भी है मेरी संपत्ति में !
आलमीरे में है मेरा काव्य-संग्रह,
जीवन का सजिल्द रूप ...
आँख मटकाती बार्बी डौल
छोटी कार - जिसे देखकर ये बच्चे
चाभी भरे खिलौने हो जाते थे
चलनेवाला रोबोट
संभाल कर रखी डायरी
जिसमें कुछ भी लिखकर
ये बच्चे आराम की नींद सो जाते थे ...
मैंने ही बताया था
डायरी से बढकर कोई मित्र नहीं
..... हाँ वह किसी के हाथ न आये
और इसके लिए मैं हूँ न तिजोरी '
पहली क्लास से नौवीं क्लास तक के रिपोर्ट कार्ड
(दसवीं,बारहवीं के तो उनकी फ़ाइल में बंध गए)
पहला कपड़ा,पहला स्वेटर
बैट,बॉल ... डांट - फटकार
एक ही बात -
"जो कहती हूँ ... तुमलोगों के भले के लिए
मेरा क्या है !
अरे मेरी ख़ुशी तो ....'"
मुझे घेरकर
सर नीचे करके वे ऐसा चेहरा बनाते
कि मुझे हँसी आने लगती
उनके चेहरे पर भी मुस्कान की एक लम्बी रेखा बनती ...
मैं हंसती हुई कहती -
सुनो,मेरी हंसी पर मत जाओ
मैं नाराज़ हूँ ... बहुत नाराज़ '
ठठाकर वे हँसते और सारी बात खत्म !
ये सारे एहसास भी मैंने संजो रखे हैं
....
बेवजह कितना कुछ बोली हूँ
आजिज होकर कान पकड़े हैं
फिर बेचैनी में रात भर सर सहलाया है ..
मारने को कभी हाथ उठाया
तो मुझे ही चोट लगी
उंगलियाँ सूज गयीं
.... उसे भी मन के बक्से में रख छोड़ा है ....
....
वक़्त गुजरता गया -
वे कड़ी धूप में निकल गए समय से
आँचल में मैंने कुछ छाँह रख लिए हैं बाँध के
ताकि मौका पाते उभर आये स्वेद कणों को पोछ सकूँ ...
...
आज भी गए रात जागती हुई
मैं उनसे कुछ कुछ कहती रहती हूँ
उनके जवाब की प्रतीक्षा नहीं
क्योंकि मुझे सब पता है !
घंटों बातचीत करके भी
कुछ अनकहा रह ही जाता है
.....मैंने उन अनकही बातों को भी सहेज दिया है
............
आप सब आश्चर्य में होंगे
- आर्थिक वसीयत तो है ही नहीं !!!
ह्म्म्मम्म - वो तो मेरे पास नहीं है ...
बस एहसास हैं मासूम मासूम से
जो पैसे से बढ़कर है -
थकने पर इनकी ज़रूरत पड़ती है ।
बच्चों को मैं जानती हूँ,
शाम होते मैं उन्हें याद आती हूँ
तकिये पर सर रखते सर सहलाती मेरी उंगलियाँ याद आती हैं,
.... उनके हर प्रश्नों का जवाब हूँ मैं
तो सारे जवाब मैंने वसीयत में लिख दिए हैं
- बराबर बराबर ........
====================================
टिप्पणी-उषा किरण
वाह…वसीयत बच्चों के नाम…अपनी अमीरी पर मुस्कुराई😊…स्मृतियों की पोटलियाँ , डायरियाँ, …एक माँ की जिन्दगी तो बस बच्चों के आस-पास ही बीत जाती है…ये ही अहसास तो सम्पत्ति उसकी💕…सब मन के बक्से में संजो रखी हैं…आंचल में आज भी उनके लिए कुछ छाँव सहेज रखी है …कुछ हौसला रखा है, कुछ ममता व प्यार …बस यही सम्पत्ति है एक माँ की जिसको वसीयत में बराबर- बराबर बाँट दिया है…ओह कितनी अमीरी …कितना कीमती बंटवारा…पाकर कितने धनी बच्चे…जो सम्पत्ति कभी गुम नहीं हो सकती, कोई चोर नहीं चुरा सकता…अभिभूत होकर बार- बार सुनती जा रही हूँ और लिखती जाती हूँ । रश्मिप्रभा ! जी पता है आपकी आवाज में भी एक माँ छलकती है जिसमें कोमलता के साथ बच्चों को कड़क अनुशासन से साधती माँ के भी दर्शन होते हैं…बहुत सुन्दर…प्यार आपको बहुत सारा ❤️❤️❤️…🌹
****************************
टिप्पणी - संध्या शर्मा
दूर जा कर भी
कहाँ जा सकूँगी
यही कहीं छूट जाऊँगी
अपनों में
अपनों के सपनो में
जो मैंने भी देखे हैं
उनकी आँखों से
उन्हें जब भी कहीं
कोई कठिनाई होगी
मिलूँगी उसके हल में
जब भी पुकार उठेगी
बिखरूँगी ममता में
हर ठोकर से पहले
थामने खड़ी रहूँगी
हर आशीष में
घुलमिलकर आऊँगी
जाऊँगी तो ज़रूर
पर यहीं कहीं रह जाऊँगी...
*************
इस टिप्पणी पर उषा जी की टिप्पणी
आहा…कितनी प्यारी वसीयत…!
सच है, माँ कहीं नहीं जातीं वो बच्चों के ही अन्त:करण में समा जाती हैं स्मृति, प्रेम व संस्कार बन कर ।मुसीबत में प्रेरणा बन कर, हल सुझाती हैं…!
आशीष बनकर सिर पर हाथ रखती हैं…
ठोकर लगने पर थाम लेती हैं …
तभी न हम हर मुसीबत में पुकार उठते हैं-
`ओ माँ…!’
माँ आजन्म बच्चों के सपनों में शामिल रहती हैं और जाने के बाद भी हिम्मत व बल बन कर अपने आशीष से उनको थामे रहती हैं ।
कितना भावुक होकर सन्ध्या लिखती हैं-
"…जब भी पुकार उठेगी
बिखरूँगी ममता में
हर ठोकर से पहले
थामने खड़ी रहूँगी
हर आशीष में
घुलमिल कर आऊँगी
जाऊँगी तो ज़रूर
पर यहीं कहीं रह जाऊँगी !”
सन्ध्या बेहद सम्वेदनशील कवियत्री हैं…बहुत प्यारी वसीयत…हर माँ की भावना ही लिख दी है आपने…प्यार आपको😘🌹
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४. यह समस्या मेरी है - गिरिजा कुलश्रेष्ठ
एक जंगल से गुजरते हुए ,
लिपटे चले आए हैं ,
कितने ही मकड़जाल.
चुभ गए कुछ तिरछे नुकीले काँटे
धँसे हुए मांस-मज्जा तक .
टीसते रहते हैं अक्सर .
महसूस नही कर पाती ,
क्यारी में खिले मोगरा की खुशबू .
अब मुझे शिकायत नही कि,
तुम अनदेखा करते रहते हो मेरी पीड़ाएं .
यह समस्या तो मेरी है कि ,
काँटों को निकाल फेंक नही सकी हूँ ,
अभी तक .
कि सीखा नही मैंने
आसान सपाट राह पर चलना .
कि यह जानते हुए भी कि,
तन गईं हैं कितनी ही दीवारें
आसमान की छाती पर ,
मैं खड़ी हूँ आज भी
उसी तरह , उसी मोड़ पर
जहाँ से कभी देखा करती थी .
सूरज को उगते हुए .
कि ठीक उसी समय जबकि ,
सही वक्त होता है
अपनी बहुत सारी चोटों और पीड़ाओं के लिये
‘तुम’ को पूरी तरह जिम्मेदार मानकर
तुम से ..इसलिये पीड़ा से भी
छुटकारा पाने का.
मैं अक्सर तुम्हारी की जगह आकर
विश्लेषण करने लगती हूँ ,
तुम' की उस मनोदशा के कारण का ,
उसके औचित्य-अनौचित्य का.
और ...
मैं' के सही-गलत होने का भी .
तब मुक्त कर देती हूँ ‘तुम’ को
हर अपराध से .
इस तरह हाशिये पर छोड़ा है
एक अपराध-बोध के साथ सदा ‘मैं’ को
खुद मैंने ही .
विडम्बना यह नही कि
दूरियाँ सहना मेरी नियति है .
बल्कि यह कि आदत नही हो पाई मुझे
उन दूरियों की अभी तक .
जो है ,जिसे होना ही है
उसकी आदत न हो पाने से बड़ी सजा
और क्या हो सकती है .
पता नही क्यूँ ,
जबकि जरूरत नही है
उस पार जा कर बस गए लोगों को,
मेरा सारा ध्यान अटका रहता है
एक पुल बनाने में .
उनके पास जाने के लिये ,
जिनके बिना रहना
सीखा नही मैंने अब तक .
चली जा रही हूँ उन्ही के पीछे
जो देखते नही एक बार भी मुड़कर .
यह मेरी ही समस्या है कि,
कि मुझे हवा के साथ चलना नही आता
नहीं भाता ,धारा के साथ बहना .
प्रायः बैर रहता है मगर से ही ,
जल में रहते हुए भी .
यह समस्या मेरी ही है
कि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे मलालों
और सवालों के घेरे में
खुद ही .
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टिप्पणी- उषा किरण
गिरिजा जी…शुरु की तीन चार पंक्तियों को ही बार- बार पढ़ कर मुग्ध हो गई…मकड़जाल,मोगरा, जंगल, तिरछे नुकीले काँटे…क्यों नहीं हम औरतें उस `तुम’ से मुक्त हो पाती हैं? जबकि एक समय के बाद दूसरे किनारे को पकड़ने की छटपटाहट को त्याग कर आत्मानन्द में, आत्मान्वेषण में लीन हो जाना चाहिए…खोने-पाने, दुख- सुख, अपने- पराए ,आरोप- प्रत्यारोपों से परे होकर अपने आंगन से आती मोगरे की खुशबू को आत्मसात् कर सकें। कितनी गहरी कविता है गिरिजा जी…सच में बहुत ही गहराई और परिपक्वता है आपके विचारों में। खुद को ही झिंझोड़ रही हैं…खुद को चेता रही हैं…परन्तु शायद यही स्थिति हम सबकी है…बार- बार पढ़ रही हूँ हर बार नए अर्थ खुल रहे हैं…मन ही नहीं भर रहा…बहुत सुन्दर…प्यार आपको🌹😍
============================================
५. सत्यमेव जयते!!!-- अर्चना चावजी
रे !सूरज आधी सदी बीत गई...
तुम मुझे
झुलसाने की कोशिश करते रहे हो,
मैं अब तक झुलसी नहीं...
और आगे भी
तुम्हारी सारी कोशिशें बेकार जाएंगी..
शायद तुम्हें पता नहीं -
मेरा चंदा रोज रात आकर
मेरे घावों पर मरहम लगा जाता है,
लू तुम्हारे साथ है,तो बयार मेरे साथ..
पतझड़ तुम्हारे साथ है तो,बहार मेरे साथ
तुम लाख कोशिश कर लो
हारना तुम्हें ही होगा क्योंकि-
मैंने हर मौसम में
बिना पंखों के उड़ना सीख लिया है ...
और मैने अपनों के संग जुड़ना सीख लिया है।
टिप्पणी - उषा किरण
सत्यमेव जयते…मैं अब तक झुलसी नहीं और न ही आगे भी झुलसूंगी…मेरा चाँद मलहम लगा जाता है हर रात…वाह क्या खूब अर्चना जी👏👏👏क्या तो हौसला है…
लू तुम्हारे साथ है तो बयार मेरे..
पतझड़ तुम्हारे साथ तो बहार मेरे..
लाख कोशिश करो पर हारना तुम्हें ही होगा क्योंकि मैंने हर मौसम में बिना पंखों के उड़ना सीख लिया है …मेरे अपनों का प्यार ही मेरे पंख हैं, मेरी ताकत व हौसला हैं…वाह ! अर्चना जी जब आपसे मिली और आपके पास खड़ी हुई तो आपके कद के आगे मन ही मन झुक गई । पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई …कितनी हिम्मत, कितना हौसला, कितनी साधना, कितनी दृढ़ता…आपकी ताकत पता है क्या है ? आप खुद को खुद चलाती हैं अपनी मर्जी से…कोई भी कमजोरी, कोई हादसा आपको कमजोर नहीं कर सकता, हरा नहीं सकता…याद है , आपने एक बार कहा था मुझसे अब ऐसा ही होगा और आपने वह कर दिखाया…कमाल हैं आप। और अब जीवन के अंतिम चरण में गीता जी की शरण में 🙏…अनुकरणीय व्यक्तित्व है आपका …हम सौभाग्यशाली हैं जो आपने और वन्दना ने ये ग्रुप बनाया और हम सब मिले इस छतरी के नीचे…बहुत किस्मत वाले हैं एक दूसरे से कितना सीखने को मिलता है। आप दोनों का धन्यवाद…आपको सलाम और ढेर सारा प्यार दुलार …आप पर बहुत प्यार आता है मुझे 😘😘🌹
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६. हाँ मैंने देखा है- संगीता अष्ठाना
हाँ मैंने देखा है ,
अपने अंतःकरण में छिपे हुए मसान को.....
जिसमें देखीं हैं दहकती हुई भस्म होती हुई अपनी उमंगें,
कुछ आशायें,
जिन्हें मोक्ष की चाहत नहीं, न ही कनागतों की प्रतीक्षा है
ये जीवन की अंतिम दस्तक तक यूँ ही सुलगती रहेंगी,
हाँ मैंने पाया है अपने अंतःकरण में सुलगते हुए मसान को
चाहूँ भी तो नहीं कर सकूँगी इन्हें प्रवाहित
जग के निष्प्राण सिंधु में
न ही कर सकूँगी तर्पण अर्पण
मेरी यात्रा के अंतिम पड़ाव तक
मैंने सहेज रखा है अपने भीतर सुलगते हुए
मसान को
टिप्पणी - उषा किरण
संगीता जी की कविता में गहरी निराशा व पूस की सर्द रातों के कोहरे सा अवसाद घुला है जो कंपकंपी ला देता है।
`हाँ मैंने देखा है अपने अंत:करण में छिपे मसान को…जिसमें देखी है दहकती हुई भस्म होती अपनी उमंगें, आशाएं…!’
और वो किसी प्रकार की राहत की भविष्य से भी आशा नहीं रखतीं-`जिन्हें मोक्ष की चाहत नहीं, न ही कनागतों की प्रतीक्षा है…!’
कवियत्री यात्रा के अंतिम पड़ाव तक उस पीड़ा को सुलगते हुए सहेज कर रखना चाहती हैं ।
एक बार तो मन में आया कि इतनी निराशा तो ठीक नहीं…क्यूँ इतनी नकारात्मक सोच…? फिर लगा कि शायद वे दुख से भाग नहीं जाना चाहतीं क्योंकि उनको भरोसा है कि इस पीड़ा से ही मुक्ति का मार्ग निकलेगा…एक बैरागी व साधक मन ही ऐसी सोच का पोषक हो सकता है और इतनी हिम्मत रखता है।
संगीता जी सुन्दर कविता के लिए बधाई और प्यार बहुत सा🥰🌹
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७. महादान - ऋता शेखर 'मधु'
रखना था वचन का मान
दिव्य उपहार कवच कुण्डल का
कर्ण ने दे दिया दान|
लोक हित का रखा ध्यान
दधिची ने दिया अस्थि दान
शस्त्रों का हुआ निर्माण
हरे गए असुरों के प्राण|
अनोखे कार्य को मिला स्थान
जग में दान बना महान||
विद्यादान वही करते
जो होते स्वयं विद्वान,
धनदान वही करते
जो होते हैं धनवान,
कन्यादान वही करते
जिनकी होती कन्या सन्तान,
रक्तदान सभी कर सकते
क्योंकि सब होते रक्तवान|
रक्त नहीं होता
शिक्षित या अशिक्षत
अपराधी या शरीफ़
अमीर या गरीब
हिन्दू या ईसाई|
यह सिर्फ़ जीवन धारा है,
दान से बनता किसी का सहारा है|
रक्त कणों का जीवन विस्तार
है सिर्फ़ तीन महीनों का|
क्यों न उसको दान करें हम
पाएं आशीष जरुरतमन्दों का|
करोड़ों बूँद रक्त से
निकल जाए गर चन्द बूँद,
हमारा कुछ नहीं घटेगा
किसी का जीवन वर्ष बढ़ेगा|
मृत्यु बाद आँखें हमारी
खा़क में मिल जाएंगी,
दृष्टिहीनों को दान दिया
उनकी दुनिया रंगीन हो जाएगी|
रक्तदान सा महादान कर
जीते जी पुण्य कमाओ
नेत्र-सा अमूल्य अंग दान कर
मरणोपरांत दृष्टि दे जाओ|
रक्तदान के समान नहीं
है कोई दूजा दान,
नेत्रदान के समान
है नहीं दूजा कार्य प्रधान|
टिप्पणी - उषा किरण
ऋता जी की कविता `महादान’ के पीछे जन- कल्याण की भावना दिखाई देती है।
ऋता जी ध्यान दिलाती हैं कि हमारे देश में कर्ण, दधीचि जैसे महादानी हुए जिन्होंने दान की मिसाल कायम की। वे कहती हैं कि दान तो समर्थ ही कर सकते हैं, चाहें फिर विद्या दान हो, कन्यादान हो या धन का दान हो, परन्तु रक्तदान और मृत्योपरांत नेत्रदान तो सभी कर सकते हैं। रक्त की कोई जाति नहीं, धर्म नहीं । रक्तदान करके हम किसी का जीवन बचा सकते हैं , जबकि दान किए रक्त की हमारे शरीर में पूर्ति बहुत शीघ्र हो जाती है।
कभी कोई यदि नेत्रदान का रजिस्ट्रेशन करवाता भी है तो उसके मरने के बाद सब परिजन रोने पीटने में लग जाते हैं और मरने वाले की अन्तिम इच्छा भूल जाते हैं ।दुनिया में जाने कितने लोगों के जीवन में अंधेरा है । हम मरणोपरान्त कम से कम दो व्यक्तियों के जीवन में तो उजाला ला ही सकते हैं ।
ऋता जी ने बहुत अच्छी व मार्मिक अपील की है अपनी कविता के माध्यम से।ऋता जी मेरा भी पूर्ण समर्थन है इस शुभेच्छा के प्रति। आपका हृदय से आभार और बहुत प्यार 🥰🌹
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८. माँ के आशीष - रश्मि कुच्छल
कितने सुख और आशीष थे बांधे माँ ने
इन धागों में ।
बुनते बुनते थकती न थी लेकर धागा हाथों में ,
हर जाड़े में आ जाती ये चादर यूँ हाथों में ,
जैसे माँ की नरम हथेली हो माथे पर
और उंगलियां बालों में ।
हल्दी ,चावल ,चांदी की गिन्नी
सारे सुख और सारी खुशियाँ
जो थी तेरे आँचल में ,
बांधी तुमने इन गांठों में ,
जब भी सर्दी आती जाती ,
ये ताने बाने खुलने लगते ,
जैसे कोई नन्ही चिड़िया घर
बन देती शाखों में ।
रश्मि कुच्छल
टिप्पणी - उषा किरण
जैसे कोई नन्हीं चिड़िया घर बुन देती शाखों में…वाह रश्मि माँ पर जितनी भी कविताएं पढी हैं उनमें श्रेष्ठतम कविताओं की श्रेणी में मैंने तुम्हारी कविता को रखा है…कितनी सुन्दर, माँ के भावों को, प्यार को दर्शाती कविता है…सबके मन के भाव समेट लिए तुमने…मन और आँखें नम हो गईं…माँ की बनाई चादर के ताने- बाने संग तुमने अपने भावों को भी बहुत खूबसूरती से बुना है …बधाई और बहुत प्यार🥰😍😘 🌹
उषा किरण
ये उषाकिरण दी की टिप्पणी है कविता पर
इतना प्यार और मान देकर मन भिगो दिया उन्होंने 🙂
रश्मि
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९. उसका मौन - शिखा वार्ष्णेय
वह चुप हो जाती है और
तुम समझते हो वो हार गई
वह नजरअंदाज करती है और
तुम समझते हो वो मान गई
वह रोती नहीं दिखती,
नहीं दिखाती मन के वो छाले
जो रिसते रहते हैं अंदर ही कहीं
और बनाते रहते हैं मवाद
वह फिर भी ओढ़े रहती है मुस्कान
और तुम समझते हो सब ठीक है।
वह करती रहती है समर्पण,
निभाती रहती है फ़र्ज़
और तुम समझते हो
तुमने उसे खुश कर दिया है।
थाम ली है उसकी लगाम
और काबू में कर लिया है।
एक बात जो तुम नहीं समझते
या समझना ही नहीं चाहते
जिस दिन टीस मारेंगे उसके घाव,
बह निकलेगा त्वचा फाड़ कर मवाद
उस दिन भी बहेंगीं नहीं उसकी आंखें
पर तप रही होंगी अंगारों से
होठ किसी मुस्कान से नहीं,
फैल रहे होंगे किसी वक्रोक्ति से।
बस उस दिन वह तोड़ देगी सारे बंधन
और हो जाएगी मुक्त
वह तब नहीं होगी मौन,
खिलखिलायेगी शान से.
तुम तब भी नहीं समझोगे कि
अब वह आजाद है और खुश है
बहुत खुश...
टिप्पणी - उषा किरण
कब समझ पाया है नारी को पुरुष…उसने हमेशा मनचाहे अर्थों से आँका उसे , अपनी इच्छानुसार और अपनी सुविधानुसार उसकी चुप्पी को हार मान लिया …वो हर दर्द को सह जाती है तो पुरुष समझता है सब ठीक है..उसके समर्पण, उसके फर्ज को , औरत को काबू में करना समझता है…जबकि सच तो ये है कि कभी परिवार की शान्ति के लिए, कभी बच्चों के लिए या कभी माँ- बाप को दुखों से बचाने के लिए वो सब कुछ सह जाती है, चुप लगा जाती है, हर बार जहर का घूँट पी लेती है। पुरुष ने कब समझना चाहा उसका मन ? शिखा आहत होकर लिखती हैं …तुम तो कभी नहीं समझोगे, लेकिन एक दिन जब ये फोड़ा पक कर फूटेगा तो दर्द बह जाएगा और वो मुस्कुरा उठेगी , खिलखिलाएगी एक उन्मुक्त हंसी…तुम तब भी नहीं समझोगे…क्योकि तुमने कभी समझना ही नहीं चाहा । बहुत सुन्दर कविता है शिखा। स्त्री का संघर्ष हर वर्ग में अब भी जारी है…पढ़े जाने की चाहत में बन्द से खुली किताब हो गई आज स्त्री …सौ लाँछन सहे पर तब भी पढ़ी न जा सकी …उफ् कितनी पीड़ा, तड़प है तुम्हारी कविता में…बहुत प्यार तुमको🥰😘🌹
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१०. आखर चाय- संध्या शर्मा
शब्दों की भीनी मिठास
भावों की महक को
जब शृंगार के जल में
व्याकरणी दूध खौलाकर
डबकाते होगें कुछ देर
तो कविता सी
बनती होगी चाय उनकी
ताज़गी से भरपूर
दार्जलिंगी गमक लिए
महकते शब्दों को
जायकेदार ख़ुश्बू संग
खूब खौलाते हैं
बड़ी शिद्दत से वो
जैसे चाय नही पक रही
कोई कविता उबल रही हो
उबलेगी, खौलेगी, छनेगी
फ़िर प्रस्तुत की जाएगी
प्यालियों रकाबियों में
किताबों की तरह
व्यवस्था परिवर्तन के लिए
क्रांति का उद्घोष करती
ये आखर चाय ...
टिप्पणी - उषा किरण
'आखर चाय’ कविता सन्ध्या जी की बहुत प्यारी परिकल्पना है।
जैसे चाय बनाते हम बहुत प्यार से, वैसे ही कविता भी तो रचते हैं…फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि चाय में डालते दूध, पत्ती और चीनी, जबकि कविता में - शब्दों की भीनी मिठास, भावों की महक, श्रंगार का जल, व्याकरणीय दूध संग डबकाते हैं ….तब जाकर बनती `आखर चाय’ यानि की कोई कविता।
सन्ध्या जी चाय बनाते- बनाते महसूस करती हैं जैसे कविता पक रही है और कविता के बनने की प्रक्रिया ऐसी जैसे कोई रचके ख़ुशबूदार, ज़ायक़ेदार चाय बना रहा हो। और तब हम घूँट- घूँट हर सिप में आनन्द लेते उसका, फिर वो चाय हो या कविता…!
सन्ध्या जी कविता के माध्यम से कहती हैं कि जब किन्हीं विचारों व भावों को उबाला, खदकाया जाएगा मतलब खूब विचार- विमर्श होगा, तब छान कर किताबों रुपी रकाबियों व प्यालियों में प्रस्तुत किया जाएगा … तभी न सड़ी- गली व्यवस्थाओं व मान्यताओं में परिवर्तन कर क्राँति का उद्घोष करेंगी ये सशक्त आखर चाय…!
प्रस्तुत कविता में चाय के बिम्ब के माध्यम से सन्ध्या जी ने कविता के निर्माण की प्रक्रिया व उसके असर को बहुत खूबसूरती से उकेरा है…निस्संदेह एक अच्छी कविता क्राँति लाने का व व्यवस्था परिवर्तन का भी दम रखती है।
इसके लिए सन्ध्या बधाई आपको और प्यार🥰
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११. आत्मबल - रचना बजाज
हम कितना भी चाहें, लेकिन
वक्त कहाँ रूक जाया करता,
कुछ अनपेक्षित घट जाने से
जीवन कब थम जाया करता.
मानव हूँ ना! चलनशील हूँ!
दुख तो आते जाते रहते
दु:खों से घबराना कैसा,
जो नीयत है वो होगा ही
नियति से टकराना कैसा.
शिक्षित हूँ ना! मननशील हूँ!
खुशी मिले तो उन्हे बाँट दूँ
दु:ख अपने सारे मै पी लूँ,
जितनी साँसें शेष हैं मेरी
उतना जीवन जी भर जी लूँ.
नारी हूँ ना! सहनशील हूँ!
रूकने से कब काम चला है
जीवन मे अब बढ़ना होगा,
खुद अपने से हिम्मत लेकर
बाधाओं से लडना होगा.
कर्मठ हूँ ना! कर्मशील हूँ!
टिप्पणी - उषा किरण
रचना जी की कविता `आत्मबल’ बहुत प्रेरणादायी है।वे लिखती हैं-कुछ अनपेक्षित घट जाने से जीवन कब थम जाया करता…दुख तो आते- जाते रहते हैं इनसे घबराना क्या …जो नियति है वो तो होकर ही रहेगा । वे मुश्किल वक्त में धैर्य रखने का हौसला देती आगे कहती हैं जो ख़ुशी मिले उसे बाँट दूँ, दुख स्वयम् पी लूँ …जितना जीवन मिला है वो तो जीना ही होगा। कितनी भी बाधाएं आएं मुझे हिम्मत से बाधाओं को पार करना होगा…मैं सहनशील, कर्मशील नारी हूँ । रचना जी मानो खुद को हिम्मत देने के लिए ही कविता रच रही हैं ,परन्तु प्रेरणा हमें भी मिलती है । वैसे भी कोई रचना सिर्फ़ रचनाकार की कब होती है…जो तादात्म्य जोड़ ले उसी की होती है।तो उनकी ये कविता सभी को प्रेरित करती है। बहुत बधाई और प्यार आपको रचना जी🥰🌹
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१२. बुलंदी - डॉ मंजुला पाण्डेय
आखिर क्या है बुलंदी
खुशी के चरम को पा जाना
या फिर लक्ष्य पा जाना
समझ नहीं पाई आज तक
अगर लक्ष्य अथवा चरम को
पा लेना ही है बुलंदी
तो फिर क्यों
पा लेने पर भी उस बुलंदी को आजीवन बार बार
फिर फिर फिर
करता क्यों है कोशिश
बुलंदी को पा लेने की
हो क्यों नहीं जाता है वह खुश
बुलंदी अथवा लक्ष्य को
पा लेने पर भी
दरअसल बुलंदी
देती तो है खुशी
पर हो जाती है
छूमंतर वह खुशी
समय बीतने के साथ-साथ
उठ खड़ा होता है
फिर वह मनुज अपनी
किसी अन्य इच्छा की खातिर
चलता रहता है
यह क्रम जीवन भर तब तक
जान नहीं पाता है जब तक
परमानंद अथवा बुलंदी के
वास्तविक चरम को
हो जाता है साक्षात्कार
जब उस चैतन्य से
उस परमपिता परमेश्वर से
उस दिव्य तत्व से
उस प्रकाश पुंज से
रह नहीं जाती है
फिर कोई कामना
छू जो चुका होता है
पा जो चुका होता है
वह तब वास्तविक बुलंदी
अथवा परम तत्व को...।
*मंजुला जी की कविता पर टिप्पणी *_उषा किरण
चाहतों की पूर्णता से कभी भी सन्तुष्टि का घड़ा नहीं भरता। इच्छाएं तो मरते दम तक सिर उठाती ही रहती हैं । परम सन्तुष्टि, तृप्ति तो बस उस परम तत्व को प्राप्त करके ही मिलती है…वाह मंजुला जी गीता का सारा सार समेट लिया आपने चन्द लाइनों में …काश जन्म लेकर यही बात हम सब समझ लें और धारण कर लें तो मनुष्य जन्म सफल हो जाए वर्ना तो - "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं…“ यूँ ही चक्की में फंसा जीव भटकता रहेगा जन्मजन्मान्तर तक अतृप्त प्यास के जंजाल में फंसा। हमारा ये ग्रुप और हमारी सखियाँ कितना ज्ञान संजोए हैं अन्दर तभी विशेष है ग्रुप हमारा…बहुत कुछ सीखने को मिलता है यहाँ…परमपिता हम सबको ये समझ दें कि हम मुक्ति की राह चल सकें…बहुत बधाई और प्यार आपको🥰😍🌹
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१३. ज्वलनशील नारियाँ - घुघूती बासुती
नारियों के,
भारतीय नारियों के जलने पर
क्यों अफसोस है
वे तो सदा से ज्वलनशील रही हैं
उसमें न हमारा कोई दोष है,
नहीं तो कोई
उसके जीवित जलने की कल्पना
भी कैसे करता?
तब, जब हम चला रहे थे
अग्नि बाण
जब उत्कर्ष के चरम पर था
हमारा इतिहास
तब भी माद्री बन रही थी
जीवित मशाल।
तब जब हम थे भाग रहे
मुगलों से मुँह छिपा
जब पतन की गर्त में था
हमारा इतिहास
तब भी हम गौरान्वित थे,
क्या हुआ जो हम
न बचा सके अपनी
बेटियों की लाज,
ब्याह रहे थे उन्हें मुगलों से
पाने को कुछ स्वर्ण ग्रास
तब भी पत्नियाँ तो थीं हमारी
सीता, सती व सावित्री
कूद रहीं थीं पद्मिनियाँ
जलने को जौहर की आग में।
फिर जब बन रहे थे
पढ़ अंग्रेजी
जैन्टलमैन बाबू हम
तब भी इन ज्वलनशील नारियों
ने डुबाया था नाम देश का
आना पड़ा था इक
राजा राममोहन रॉय को,
जब भी कोई भद्र
मरणासन्न बूढ़ा खोलता था
करवा कन्यादान
किन्हीं नन्हीं बालाओं के
माता पिता के स्वर्गद्वार
तब उसके मरने पर
बैठ जातीं थीं चिता पर
ये नन्हीं बालाएँ
प्यार में उस वृद्ध के।
आज जब हम
दौड़ में बहुत आगे हैं
हमने आइ टी में रचा है
इक नया इतिहास
तब भी क्या करें
ये ज्वलनशील नारियाँ हमारी
कभी भी
इक माचिस की तीली की
छुअन से जल जाती हैं,
हम नहीं चाहते परन्तु ये
न जाने क्यों भस्म हो
जल मर जाती हैं?
हम भी तो हैं फूँकते
न जाने कितने अरब
सिगरेट और बीड़ियाँ
क्या जली है मूँछ भी
कभी गलती से हमारी आज तक?
फिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
क्यों ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।
सती प्रथा पर उतना जोर नहीं है जितना कि पिछले कुछ सालों से स्त्रियों को जलाए जाने या उनके खुद जलकर आत्महत्या कर लेने पर है उसी संदर्भ में यह पुरुष कह रहा है कि भाई हमारे यहां तो स्त्रियां सदा से ज्वलनशील रही हैं क्योंकि स्त्रियों की डीएनए में कुछ गड़बड़ है हमारी कोई गलती नहीं है
टिप्पणी - उषा किरण
तुम ही झुलसाओगे
तुम ही जलाओगे
और फिर तुम ही सवालों के घेरे में खड़े कर आरोप प्रत्यारोप भी लगाओगे ? वाह…!
घुघुती जी करारा व्यंग्य करते हुए पूछती हैं-जाने क्यों ये ज्वलनशील नारियाँ भारत की एक तीली की छुअन भर से जल जाती हैं ।
हम भी तो सैकडों सिगरेट फूँक जाते पर हमारी तो मूँछ का एक बाल भी कभी नहीं जलता ये तीलियाँ इनको ही क्यों जला देती हैं ?
वाह…कैसा तिलमिला देने वाला व्यंग्यात्मक वार किया है !
आन-बान के नाम पर तो कभी घर्म व आचार संहिता के बहाने, कभी बलिदान के लिए जलती रहीं, जलाई जाती रहीं स्त्रियाँ और तुम तोहमतें लगाओगे…हद्द ही है!
बहुत सुन्दर कविता अन्दर तक झकझोर देती है…मेरा तो खून खौल उठा…बहुत बधाई और प्यार आपको😍🌹
**********************
उन ज्वलनशील नारियों को नमन ... जान दे दी पर आन न जाने दी ... धिक्कार उस सतीप्रथा पर ... नारी अब अबला नहीं रही, सबला हो चुकी है लेकिन समाज का दृष्टिकोण आज भी उतना नहीं बदला जितना उसे बदलना चाहिए था ...
संध्या शर्मा
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१४. अनुराग-पूजा अनिल
१
किसी दोहावली की तरह
बड़े मन से पढ रहे हो मुझे,
एक दिन सम्पूर्ण स्मरण हो जाऊँगी
उस दिन लय में गा लेना
जिस जगह आहत हुई होगी मनुजता
वहीं नेह घन सी, तुम्हारे स्वर में,
राहत बरसा जाऊँगी।
2
जीवन चल रहा है कभी दौड़ रहा है
कभी-कभी ठहर जाता है
मौन की साधक हूँ मैं
कभी मौन रहती हूँ
कभी कुछ कहती हूँ
कभी खूब बोलती हूँ
विरोधाभास हर जगह
परिवर्तन हर जगह
सुख और दुःख का संजोग निरन्तर
एक ही दिन में आँसू और हंसी का मिश्रण
काले और सफेद कई रंगों से
जीवन का कैनवास भर गया है
एक कदम किसी रंग की तरफ़ बढ़ाया नहीं
कि किसी अंधेरे में घिर जाने का भय उभर आए
हाँ ! बस मैं इतना अवश्य जानती हूँ
ये जो मैं हर तरह सुरक्षित हूँ
तेरी ही प्रार्थना का असर है !!
- पूजा अनिल
टिप्पणी - उषा किरण
वाह! कितने सुन्दर रंगों को समेटे तुम्हारा सुन्दर रूप और अनूठी कविताएं…पहली कविता में दोहे का सम्वाद, दूसरी कविता में प्रभु से सम्वाद…जीवन तो चलता ही रहता है पर मैं मौन की साधक हूँ, कभी कम तो कभी ज्यादा बोलती हूँ …यूँ तो जिन्दगी के झंझावातों में चल रही हूँ , सभी रंगों में जी रही हूँ…हर्ष, उल्लास, सुख, दुख में घिरती मन मेरा अँधेरों से डर जाता है परन्तु हे परम पिता परमेश्वर मैं जानती हूँ कि मेरी प्रार्थनाएं तुम्हें पुकारती हैं तो तुम ही मुझे थाम कर निश्चिन्त कर देते हो…कितनी समर्पित भाव से लिखी कविता तुमने…बहुत सुन्दर 😍🙏🌹
***********
बहुत ही खूबसूरत रचना...दोहा पढ़ना और आत्मसात् करना...दो अलग अलग बातें हैं|
जिस दिन मनुष्य उनके साथ घुलमिल जाएगा...सृष्टि स्वयं उसके आगे नतमस्तक हो जाएगी|
बहुत सुन्दर भाव...
--ऋता शेखर
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१५.१ ऑक्सीजन...-------..अंजू गुप्ता
मौन हैं ये आँसू भी
और मौन है ये मौन भी
फिर कौन ये चुपके से मेरी कहानी लिख गया?.
एक एक लफ्ज़ को अनगिनत अल्फाजों में बोल गया..
शायद मेरी आती जाती उच्छ्वासों और निःश्वासों ने दिल का ये भेद मेरा खोल दिया
दरवाजा तो मैने बन्द किया था..
पर मन की मेरी ये खिड़कियाँ सारी ...कौन अपनी मास्टर की (चाबी)से खोल गया?
अब बैठी हूँ मै
अपने ही किये बन्द घर मे, उन खिड़कियों से बाहर झाँकती
इस चौखट पे हूँ दिन रात उसकी ही राह ताकती
वो कौन अजनबी है, जो मुझसे बिना मिले ही
मेरा यूं ख्याल कर गया ...
खोलकर के मेरी खिड़कियों को
यूँ
मुझे मेरे हिस्से की प्यार वाली ऑक्सीजन सौप गया
अंजु (तितली)..
१५.२ - रजाई- - - -अंजू गुप्ता
मै कविता से हूँ.....
या मुझसे है कविता
बस यही सोचते सोचते रजाई मे पड़ी रहूँ
खुदबखुद कविता जब मुझसे लिपट जायेगी
फिर न, वो ,कहीं जायेगी
ना... मै कहीं जाऊँगी...
यूँ एक दूसरे की ऊष्मा से पोषित
इस जाड़े को दूर भगाऊँगी...
पड़े पड़े ही इस बिस्तर पे मै
उसे फिर वही हरीरा,छुआनी ,पात खिलाऊँगी....
लेके अलसी के बीजों को कूट फिर लड्डू बना
कविता के साथ रख पोटली मे उनको,,,उसको बेटी की तरह विदा कर आऊँगी....
और फिर से आके फिर अपनी उसी रजाई मे दुबक जाऊँगी.....
अंजु(तितली).....
टिप्पणी - उषा किरण
रजाई…कविता…मैं…सब मैं ही हो जाऊँगी 😂…हरीरा, छुआनी पात, गोंद के लड्डू…सब खाकर फिर रजाई में दुबक जाऊंगी…लग रहा है रजाई से मुड़िया बाहर कर लिखी और फिर रजाई के अन्दर दुबक गई😂😅…🥰🌹
ऑक्सीजन...वाह…वर्जनाओं की श्रंखलाओं में जकड़ लो या मन की सारी खिड़कियों को बन्द कर दो लेकिन मन तो मन है किसके बाँधे बँधा है ?…गाहे- बगाहे उड़ ही जाता है तितली सा…समाज आचरण पर ताले लगा सकता है, वर्जनाएं पैर रोक सकती हैं…पर सपनों पर , भावों पर किसका बस है ….सपने देखना कब मना है…साँस लेना कब प्रतिबंधित है …प्यार ही तो प्रभु के रास्ते पर पहुँचाता है…खुद से मिलवाता है…बहुत सुन्दर कविता …प्यार तुमको🥰🌹
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१६. गौरैया - वंदना अवस्थी दूबे
कई साल पहले,
एक गौरैया दिखी मुझे।
लुप्तप्राय गौरैया ने दिख के
जगा दी उम्मीदें,
कि मादा है, तो नर भी होगा ही
और होना चाहिए
घोंसला भी।
रखती रही मैं
दाना-पानी, कि दिखती रहे गौरैया।
फिर दिखे घास के कुछ तिनके,
घर के बरामदे में।
जगा दी उम्मीदें तिनकों ने,
कि तिनके हैं, तो घोंसला भी बनेगा ही।
फिर उम्मीदें पूरी हुईं,
अब गौरैया सपरिवार आती,
बच्चों के मुंह में,
दाना-पानी डालती।
और फिर एक दिन-
उड़ गए तीनों बच्चे,
नर और मादा गौरैया
पेड़ की टहनी पर बैठे थे चुपचाप।
पता नहीं क्यों,
मुझे मेरी माँ दिखी गौरैया में,
मेरे पिता दिखे गौरैया में।
उनकी बेटियां भी तो उड़ गयीं,
अपने ठिकानों की ओर।
लेकिन गौरैया की तरह ही
उनकी आंखों में भी
उम्मीद रहती है हमेशा
कि बच्चे आएंगे.....!
#विश्वगौरैयादिवस
टिप्पणी - उषा किरण
यूँ तो `वन्दना अवस्थी दुबे ‘ कविता नहीं उपन्यास व कहानियाँ लिखती हैं , लेकिन कभी-कभी जब अचानक से उद्गार उद्वेलित करते हैं तो कविता भी छलक ही जाती है।उनकी कुछ कविताएँ पढ़ी हैं मैंने।
वन्दना कहती हैं कि उनको कविता लिखनी नहीं आतीं…नहीं आतीं तब तो इतनी अच्छी लिखती हैं …आतीं तो क्या करतीं…राम ही जाने😊।
विश्व गौरैया दिवस पर लिखी वन्दना की कविता गौरैया’ पढ़ी…बहुत सुन्दर , सहज अभिव्यक्ति है।वे लिखती हैं-
एक दिन गौरैया दिखी तो उम्मीद जागी…
चिड़िया है तो चिड़ा भी होगा…
दाना पानी रखने लगीं, तो तिनके भी दिखे…
तिनके हैं तो घोंसला व बच्चे भी होंगे…
एक दिन गौरैया की गृहस्थी बस गई ।
बड़े होकर बच्चे उड़ गए और रह गए चिड़ा और चिड़िया अकेले…वे लिखती हैं कि उन्हें देख कर अपने मम्मी और पापा याद आ गए !
जगत की यही रीत है, एक दिन अकेले ही रह जाना होता है सबको…यही नियति है हर प्राणी की चाहें वो पशु- पक्षी हों या इंसान !
कायनात की व्यवस्था ऐसी ही है …प्रकृति सिखाती है कि कैसा मोह…कैसी माया ?
छूटना ही एक दिन सब…!
वन्दना की कविता की सम्वेदना मुझे अन्दर तक छू गई…उनकी कविता ने मुझे दूर तक सोचने पर मजबूर कर दिया…वन्दना बधाई और आपको बहुत प्यार… ऐसे ही निरन्तर कविता लिखती रहा करें !!🥰
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17. सब तुम्हारा…निरुपमा चौहान
मेरा सब कुछ तुम्हारा है मेरी बिटिया सब कुछ,
ले लेना सारे जेवर, कपड़े ,गृहस्थी
जो भी भाये ... रखना या बाँट देना आगे सब तुम्हारा…
लेकिन न लेना मेरी किस्मत , मेरा भाग्य
हे प्रभु ! इसे बस मुझ पर ही खत्म करना
मिटा देना भगवन इन दुखों को इस सृष्टि से बस यही न मिले किसी को यहाँ
बाकी सब तुम्हारा मेरी गुड़िया रखना ,भोगना या बांट देना,
बस बहुत सुखी रहना...आमीन।
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निरुपमा जी
तुमको बहुत कम पढ़ा है नीरू पर जब लिखती हो तो बहुत सुन्दर लिखती हो …अब रुकना मत लिखती रहना, हमारे ग्रुप पर आकर देखना मन में दबी कविताएं खुद ही बाहर आएंगी…माँ की कामना को बहुत ही मार्मिक शब्दों में पिरोया है तुमने…सच है माँ सब कुछ बेटी को सौंपती हैं परन्तु सारा दुख, आपदा अपनी ही झोली में गाँठ बाँध रख लेना चाहती है…ममता, करुणा, आशीष और बहुत सारी प्रार्थना समेटे है तुम्हारी कविता…तुम्हारी प्रार्थना में मेरी भी प्रार्थना शामिल हो…प्रभु हमारी बच्ची को सारे जहान की ख़ुशियाँ देना…बहुत प्यार तुमको😍🥰🌹
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दूसरा भाग- उषा किरण जी की दो कविताएँ
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कविता १
ऐ दोस्त
अबके जब आना न
तो ले आना हाथों में
थोड़ा सा बचपन
घर के पीछे बग़ीचे में खोद के
बो देंगे मिल कर
फिर निकल पड़ेंगे हम
हाथों में हाथ लिए
खट्टे मीठे गोले की
चुस्की की चुस्की लेते
करते बारिशों में छपाछप
मैं भाग कर ले आउंगी
समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़
तुम बना लेना चाय तब तक
अदरक इलायची वाली
अपनी फीकी पर मेरी
थोड़ी ज़्यादा मीठी
और तीखी सी चटनी
कच्ची आमी की
फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा
सीधा कर देना और
रस्सी डाल उस पर मैं
बना दूंगी मस्त झूला
बढ़ाएँगे ऊँची पींगें
छू लेंगे भीगे आकाश को
साबुन के बुलबुले बनाएँ
तितली के पीछे भागें
जंगलों में फिर से भटक जाएँ
नदियों में नहाएँ
चलो न ऐ दोस्त
हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!
— उषा किरण
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विदा के साथ छूट जाते हैं सब लम्हे ,सखियाँ ,सहेलियां सारी मासूम शरारतें जाने कहाँ से हंसी किलक कर बिखर जाती थी जिसे जीने के लिए फिर वहीं खो जाने को आतुर मन उचाट हो जाता बार बार ,उषा किरण दी की कविता मन के कोनों में गहरे जा दुबके उन छोटे छोटे सपनों को ,ख्वाहिशों को फिर से जगा लाती है ।
खुद को फिर से बेफ़िक्र जीने की छोटी सी सपनीली ट्रिप ,वो अबोध बचपन का सा दिल जिसमे बस कौतुक थे ,हर चीज सुंदर
मोहने वाली है ,जीवन के स्वर्णिम पल यानी दोस्त और वो संग साथ की ऊंची उड़ान के सपने ,जिनमें पंख न थे बस खुला आसमान था और कुछ सपनों भरी आंखें ।
बहुत खूबसूरत कविता 💐💐💐
सब कुछ मिल जाता है उम्र भर साथ रह सकें , वो दोस्त ही छूट जाते हैं ।
१. रश्मि कुच्छल
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चलो न ऐ दोस्त
हम फिर से बच्चे बन जाएँ !
कितनी सुन्दर, कितनी मधुर कल्पना ! मुझे उषा जी की यह कविता बहुत अधिक पसंद है ! एक बार ग्रुप में उनकी रचित बेहद खूबसूरत और स्तरीय पुस्तक 'ताना बाना' से अपनी पसंद की कोई कविता पढ़ने का टास्क हुआ था तो मैंने यही कविता पढ़ी थी ! कविता की हर पंक्ति हमें अपने ही अनोखे स्वप्नलोक में पहुँचा देती है जहाँ कोई पाबंदी नहीं है, वर्जना नहीं है, रोक टोक नहीं है ! जो है बस वह मस्ती है, मौज है, खुशी है, आनंद है और है सारे संसार को अपनी मुट्ठी में बाँध लेने की अभिलाषा ! जहाँ इंद्र धनुष को सीधा करके उस पर झूला डाला जा सकता है, बगीचे में गड्ढा खोद कर बचपन को बोया जा सकता है, जहाँ बारिश में छपाछप भीगते हुए कच्चे आम की चटनी के साथ समोसे और कुल्हड़ वाली अदरक इलायची की चाय का बेख़ौफ़ लुत्फ़ उठाया जा सकता है ! उषा जी की लेखनी और कल्पना शक्ति दोनों की ही मुरीद हूँ मैं ! शायद इसलिए भी कि मेरे मन का बच्चा भी ऐसी ही कल्पनाओं में खोया रहता है और अक्सर ही निर्मम यथार्थ की व्यस्त दिनचर्या से कुछ पल चुरा कर इसी भावलोक में पहुँच जाता है जहाँ चलने का आमंत्रण उषा जी अपने दोस्त को दे रही हैं ! उषा जी की एक बहुत ही आत्मीय सी भावपूर्ण रचना जो हर मन को आल्हादित, आलोड़ित कर लेने की गज़ब की क्षमता रखती है ! बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं उषा जी ! काश किसी दिन यह मिलन वास्तव में संभव हो जाए !
२. साधना वैद
🙏🌹😘🌹😘🌹🙏
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एक छोटी सी नन्ही सी मासूम गुड़िया बसती है इस कविता में।
दोस्ती का रिश्ता सबसे ऊपर भाव में में आते वो दोस्त तक पहुँच जाते।
अपनी सी सुंदर कविता।
३. शोभना चौरे
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बालमन में रमने की छटपटाहट और उन बीते पलों को फिर से शिद्दत से जीने की चाह 👌👌 बखूबी उल्लेख किया ऊषा दी,सच मन बार बार फिर जीने दो की पुकार कर रहा है ,चलो न 🙌
४. संगीता अष्ठाना
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हां हम फिर से बच्चे बन जाएं
आंगन में खेलें गिल्ली -डंडा,
गोल गोल कांच की गोटियां
छुप जाएं कपास की थप्पी में,
खींच कर भागे एक दूसरे की चोटियां
जब खूब थक जाएं तो
बांट कर खा लें आधी आधी रोटियां...
ऐ दोस्त
दो मिनट के लिए ही सही
पर जरूर मेरे घर आना
और हां
अपना बचपन साथ लाना...
५. अर्चना चावजी
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उषाकिरण जी की रचना 'ए दोस्त' बचपन के उन सुनहरे दिनों में ले जाती है, जिसे हम उम्र में जीने का मन करता है !
कितनी सरलता से वही बचपन वाले अंदाज़ में उनका ये कहना कि दोस्त अबकी जब आना तो थोड़ा बचपन साथ लाना, मनमोह लेता है .
उनकी पूरी रचना में बचपन जीवंत हो उठा है .
उनका दोस्त से कहना कि "तुम इंद्रधनुष को ज़रा सीधा कर देना, मैं उसपर झूला डाल दूंगी " इस पूरी रचना की अतिप्रिय पंक्तियाँ लगी मुझे ! उनकी सुंदर सोच उनके प्रकृतिप्रेम को उजागर करती है.
उषाजी की रचना पढ़कर मन करता है उनसे कहूँ ए दोस्त ! चलो हम फ़िर से बच्चे बन जायें और उस इंद्रधनुष को सीधा करके झूला डालें
छू आयें गीला आसमान 😍😘🤗
६. संध्या शर्मा
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जिन स्मृतियों से मन बाहर नहीं निकलता, वह होता है हमारा बचपन । रेत के घरौंदे, चवन्नी के बीज, नुक्कड़ पर मिलता लेमनचूस, खट्टे मीठे तीखे अपने सपने ... चलती हूँ न साथ उसी पेड़ के पास, जहाँ मिलेंगे वे खट्टे टिकोले
७. रश्मि प्रभा
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कविता 2
यूँ भी
किसी के पूछे जाने की
किसी के चाहे जाने की
किसी के कद्र किए जाने की
चाह में औरतें प्राय:
मरी जा रही हैं
किचिन में, आँगन में, दालानों में
बिसूरते हुए
कलप कर कहती हैं-
मर ही जाऊँ तो अच्छा है
देखना एक दिन मर जाऊँगी
तब कद्र करोगे
देखना मर जाऊँगी एक दिन
तब पता चलेगा
देखना एक दिन...
दिल करता है बिसूरती हुई
उन औरतों को उठा कर गले से लगा
खूब प्यार करूँ और कहूँ
कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?
तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा
किसने छाती कूटी या स्यापे किए
क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?
कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को
उठो न एक बार मरने से पहले
कम से कम उठ कर जी भर कर
जी तो लो पहले
सीने पर कान रख अपने
धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो
शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग
बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान
और पहन कर झूमो
स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले
अपने हाथों को चूम लो
रचो न अपना फलक, अपना धनक आप
सहला दो अपने पैरों की थकान को
एक बार झूम कर बारिशों में
जम कर थिरक तो लो
वर्ना मरने का क्या है
यूँ भी
`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’
-- उषा किरण
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टिप्पणियाँ
इस कविता को पढ़ते हुए कहीं ये भी महसूस हुआ कि बहुत कुछ बदला भी है खास तौर पर 80,90 में जन्मी generation में तालमेल और आपसी समझ या तो बहुत ज्यादा है और नहीं हुई तो तू अलग ,मैं अलग 😃
शायद संयुक्त परिवार की वर्जनाएं और जिम्मेदारियां भी खुलकर जीने नहीं देती थी उस समय की स्त्री को ।
बस तीज त्यौहार ही बहाना थे उनके पास ।
अब जो फलक है ,मध्यमवर्गीय परिवारों में तो अब भी सामने कुछ कहेंगे और पीछे कुछ ,भले ही कितना भी काम सम्भाल रखे हों ।
रश्मि कुच्छल
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घर परिवार को चारों कोनों से संभालती ,अपने आँचल से सबके दुःख को समेट उसके अपने मन की आस क्या होती है ?
बस एक बार कोई कहे कि तुम भी आराम कर लो ,अपने लिए कहीं थोड़ा समय चुरा लो ,ये सच है घर बार संभालने वाली महिलाओं को
बहुत हल्के में लिया जाता है कभी घर के लोग ,कभी खुद का उनका घुट्टी पिया हुआ दिमाग,ऐसा नहीं कि घर बाहर दोनों संभालती स्त्रियों को कुछ सुनना नहीं पड़ता या सुनाया नहीं जाता ।
उषा दी की कविता खेत खलिहान से लेकर महानगर के दायरे तक जाके उन तमाम महिलाओं से आह्वान करती है कि जो उनमें जीने की ललक है ,थोड़ा सा समय खुद के लिए जीना गुनाह नहीं ,स्वछंद हो जाना नहीं ,ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा ,अपने हुनर को तराशें ,थोड़े से पल चुराकर जो अच्छा लगे करें ,खुद के लिए अपने पर भी ध्यान दें ।
रश्मि कुच्छल
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उषा जी की तमाम कविताओं की तरह " यूँ ही " भी नारी ह्रदय की पीड़ा और संवेदना से निकलकर जीवन को सकारात्मक दृष्टि से देखने का संदेश देती है ।
स्त्री के आत्माभिमान को बचाये रखने और जीवन में मिले पल पल को खुलकर जीने की प्रेरणा देती है ।
हर व्यक्ति की तरह स्त्री का व्यक्तित्व भी स्वतंत्र है ।उसका होना और जीना बहुत महत्वपूर्ण है ।
वह रोने और कूढने के लिए नहीं जन्मी है ,फिर वह पति / पुरुष के अनुकूल चलने के लिए क्यों विवश है ।
उषा जी ने सामंतवादी सोच के अंधेरे में बड़ी घुती स्त्री को बाहर निकालने के लिए उजाले का बहुत खूबसूरत ताना बाना बुना है
पढ़ते ही एक हौसला खुद ब खुद जाग जाता है ।
मैंने भी कुछ इसी तरह लिखा है -
बहुत हुई अब जिम्मेदारी अब बोझ उठाने की
ठोकर खा आँसू पीकर खुद को समझाने की
आराधन में जीवन बीता क्या परिणाम मिला
एक उदास अंधेरा ही ,तुमको हर शाम मिला
नहीं जरूरत अब अंतर को और जलाने की ।
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
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यूँ कलपने में , मर ही जाऊं कहने में ... और बिसूरते हुए सब फिर फिर वही वही करने में ... पूरा जीवन जी जाती है स्त्री. यही उससे अपेक्षित है. जो उठाना चाहे, हंसना चाहे, जी लेना ज़रा सा भी तो सांस खींच लेता है समाज. हजारों आरोपों के साथ उसका गला घोट देते हैं उसके अपने ही लोग. उन्हें पसंद है वही ... रोती, कलपती, मरती स्त्री.
पर अब उठ रही है वह, उठना ही
चाहिए. आखिर उसे भी बक्शी गई है वही जिंदगी जो मिली है बाकी आधी दुनिया को. उसकी साँसें भी नेमत हैं. काश सच हो जाती आपकी कविता हर एक स्त्री के लिए. आमीन.
- शिखा वार्ष्णेय
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आखिर क्यों, यूँ ही क्यों चाहती हो सखी ? खुद को खुद जानती हो, और औरों को भी तुम बेहतर जानती हो, इसके बाद भी पूछे जाने की उम्मीद . . . आखिर कब तक !
जले हाथों को रख लेती हो पानी की तेज धार में, उससे पहले चूल्हे की आंच कम कर देती हो ... जब उस वक़्त कोई नहीं दौड़ा, बल्कि दे दिया उलाहना कि कैसे करती हो, उससे उम्मीद !!!
एक दिन की प्रत्याशा में कितनी बार मरोगी ? एक वितान अपने लिए बुनो, सामर्थ्य के फंदे डालो और थिरकती जाओ ।
वितान के साथ यह हौसला, जो आपने बुना है, वह कमाल का है ।
रश्मिप्रभा
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उषा जी की इन पंक्तियों से कुछ औरतों की अधूरी इच्छा का नक़्शा सा खिंच जाता है। और एक सही सटीक सलाह के साथ उषा दी अपनी कविता आगे बढ़ाती हैं।
इन औरतों को ज्ञान नहीं
स्वयं का कोई भान नहीं
वे समझती हैं कि लड़ लेंगी पुरातन वाक्य से अन्याय अत्याचार से लेकिन वे नहीं सोच पातीं कि अब बीत चुका सतयुग, आज के युग में जीने के लिये रानी लक्ष्मी बाई होना होगा, स्वयं को कभी किसी से कमजोर नहीं समझेंगी तभी इस कठिन जीवन से पार पाएँगी।
जियो आज में, न कि आने वाले कल की फ़िकर में।
-पूजानिल
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औरतों को अक्सर उनसे ही प्रशंसा की चाहत रहती है जिनसे शिकायतें रहती हैं| क्यों उनकी खुशियाँ मोहताज रहती हैं किसी और पर|
कोई आहत करने के लिए जिम्मेदार हो तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता...सहना होता है अपनी क्षमता के अनुसार
किन्तु खुशी पाने के लिए दूसरों पर निर्भर होना अच्छी बात नहीं| उषा जी ने बहुत ही अच्छी कविता लिखी...कुछ वह भी करो जो तुम्हारा दिल कहे...जिससे खुशी मिले...तो चलें, थोड़ा भीग लें बारिश में भी
थोड़ा खुद को इस विचार से मुक्त करें कि हमारे बिना जीवन नहीं चल सकता |
-ऋता शेखर
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वाह ! कितनी सुन्दर कविता ! उषा जी के प्रेम से भरे अति संवेदनशील हृदय का परिचय देती यह अद्भुत अभिव्यक्ति है ! कितनी दमित, शमित, घुटती, बिसूरती गृहणियों की वेदना को अपनी रचना में मुखर भी कर दिया, उन्हें खुद से प्यार करने का मशवरा भी दे दिया और उनके बहते आँसुओं को पोंछ कर उनके रिसते ज़ख्मों पर मरहम भी रख दिया ! जिसका दिल प्यार से भरा हो उसी के आह्वान में इतनी सामर्थ्य होती है कि मरणोन्मुख प्राणी के मन की जिजीविषा भी चैतन्य हो उठे, थके पाँव थिरक उठें और बिसूरते मुख से विलाप के स्थान पर सुरीले अलाप हवाओं में गूँज उठें ! न जाने कितनी नारियों के आँसुओं को आपने अपने आँचल में सोख लिया है आज उषा जी ! आपको हमारा तहे दिल से सलाम !
- साधना वैद
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औरतों
मरने की बातें न किया करो
तुम जन्मदायिनी हो...
खुद अपने स्वप्न साकार करो
ये न समझो कि सिर्फ अंकशायिनी हो..
हँसो तो पेट से हँसा करो
गाओ तो दिल से गाया करो
तुम्हारे कलपने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा यही सोच मस्ती में अपनी खिलखिलाया करो
जी भर जी लो अपना हर पल
किसी ने नहीं देखा अब तक,
आने वाला कल
भूल भी जाओ अब लेना सिसकी
सुना तो होगा जिंदगी है सिर्फ चार दिन की..
अर्चना चावजी
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Comments
ज़माना तो करवट बदलता रहेगा,
नये जिंदगी के तराने बनेंगे 🎶🎶🎶
मिटेगी न लेकिन मुहब्बत हमारी
यूं ही गुनगुनाते गुज़रा करेंगे 💟
ऋता, पूजा का ये अनमोल सृजन नि: संदेह इंटरनेट पर विश्व में हमारा परचम लहराने लगा है।
मेरा मन आजकल के माहौल से कुछ अनमना सा है तो गाने का जरा भी मन नहीं करता।कई दिनों से ग्रुप पर कम टाइम ही दे पा रही थी…फिर एक दिन टास्क मिला स्वरचित कविता पाठ पर तो कुछ मूड बना, लगा कि आज तो कुछ लिखते हैं…एक दो कविताओं पर कमेन्ट किए तो लगा ये सही नहीं होगा फिर बाकी सबको कैसा लगेगा…तो सभी पर कमेन्ट करती चली गई। कविता पढ़ना और फिर कमेन्ट करना…मन बहुत भावुक हो गया…प्रेम व भाव की जैसे नदी बहने लगी। सभी की रचनाएं इतनी भावपूर्ण व सुन्दर जो थीं। फिर अर्चना चावजी जी का सुझाव आया कि क्यूँ न अब मेरी कविताओं पर सब कमेन्ट करें और ये सब सामग्री ब्लॉग पर लगाई जाय। वे हमेशा कुछ हट कर और बेहतर सोचती हैं ।मैंने असमर्थता दिखाईं तो हमारी कर्मठ व लगनशील ऋता शेखर जी ने आगे आकर ये बीड़ा उठाया और बेहद सुन्दर परिणाम सामने है।
ऋता जी रात को दो-तीन बजे तक भी आप इस पर काम करती रहीं…सलाम है आपकी लगन , सृजनात्मकता व ऊर्जा को।
ईश्वर से प्रार्थना है कि हम यूँ ही चलते रहें गाते गुनगुनाते…हाथों में हाथ डाले, एक दूजे का सम्बल बने । जिन सखियों साधना जी, रश्मिप्रभा जी, सन्ध्या, ऋता जी, शिखा, संगीता अस्थाना, गिरिजा जी, अर्चना चावजी, रश्मि कुच्छल, शोभना जी, पूजा अनिल आदि ने मेरी कविताओं पर अपनी सारगर्भित टिप्पणियाँ लिखी हैं उन सभी का हृदय से आभार …ऋता जी अन्त में आपको बहुत प्यार व शुक्रिया 🥰😍🙏
साधना वैद जी ने बहुत सुन्दर लिखा है अपने मार्ग को स्वयं प्रशस्त करना है,हम महिलाओं का स्वभाव ही ऐसा होता है कि सात फेरों के संबंध को ख़ूटा मानकर चलते हैं। वाह। दोनों कविताओं के लिये साधुवाद।शोभना चौरे दी ने 55पार की औरतों की वेदना को अपनी कलम से क्या ख़ूब उकेरा है बहुत बढ़िया। रश्मि प्रभा जी ने वसीयत में क्या क्या लिखा है कुछ स्मृतियां कुछ निशानियां बहुत बढ़िया कविता है। वाह क्या बात। गिरिजा जी बहुत अच्छा लिखती हैं अपने चारों ओर की पीड़ाओं को समेटे कैसे जीवन जिया है। बहुत सुन्दर। अर्चना चाव जी नेभी आत्म विश्वास और आत्म बल से सरोबार सुन्दर कविता लिखी। बहुत बढ़िया। संगीता अष्ठाना जी लिखती हैं कि स्त्री कैसे कपनी इच्छाओं का गला घोंटकर दूसरों के लिये जीती है। वाह क्या बात।ऋता शेखर मधु जी ने दानवीर कर्ण और दान करने वालों के बारे में बहुत बढ़िया कहा है। बधाई। रश्मि कुच्छल जी ने मां के त्याग का वर्णन इस तरह बुनते हुए सहज किया है कैसे सारी जिम्मेदारी निभाती है मां। वाह।शिखा वार्ष्णेय जी कहती हैं कि एक स्त्री कितनी सहनशीलता रखते हुए अपने कार्य करती है। बहुत बढ़िया कविता। वहीं संध्या शर्मा जी चाय के माध्यम से कैसे चाय बनाते बनाते कविता बन जाती है।वाह क्या बात है।रचना बजाज जी लिखतीं हैं कि नारी दुखों को पीती रहती है और सतत जीवन के कार्य करती है, बहुत सहनशील है। वाह।डा मंजुला पांडेय कहती हैं बुलंदी क्या है, सच्ची बुलंदी तो परमानंद में है अर्थात ईश्वर प्राप्ति में बड़ा सुंदर चित्रण।घुघूती बासुती जी ने समाज पर तीखा कटाक्ष करते हुए कहा है कि नारी क्यों जलाई जाती है आखिर क्यों। वाह वाह क्या बात है।हमारी अंजु गुप्ता जी बहुत भावुक कविताएं लिखती हैं स्वयं भी बहुत भावुक हैं।कोमल हृदय रखतीं हैं। बहुत बढ़िया कविता।वंदना अवस्थी दुबे जी ने तो कमाल की कविता लिखी है,कैसे लुप्त होती गौरैया के माध्यम से उन्होंने बेटी जो मां का आंगन छोड़कर उड़ जाती है,और माता पिता ठगे से रह जाते हैं। बहुत बढ़िया कविता।निरूपमा चौहान जी ने अपनी बिटिया से कहा कि सब कुछ ले जाओ बेटी पर भाग्य तो नहीं ले जा सकती वो भी उदासीन जीवन पर संकेत है। वाह क्या कहने।ऊषा किरण जी बहुत कमाल लिखती हैं।बचपन की दोस्ती भुलाई नहीं जाती उसकी मीठी सी यादें।दूसरी कविता में औरतों को सिर्फ अपनी प्रशंसा प्यारी होती है। कितना भी कठिन परिश्रम करें उसपर लोगों से प्रशंसा की चाह यही भाव है। बहुत बढ़िया कविता।
वास्तव में हमारा यह समूह और समूह की सखियां अद्भुत हैं, सराहनीय हैं, सुन्दर हैं,सहज हैं, सहनशील भी हैं।ऐसा कोई दूसरा समूह नहीं देखा।
नमस्कार सुनीति बैस ग्वालियर
हम मिले और हमारे मिलने का कोई प्रयोजन अवश्य निर्धारित होगा। हम अपना कर्म करते चलेंगे।समय उसको इतिहास बनाते चलेगा।सबको शुभकामनाएं ।इस ग्रुप से जुड़ने और जुड़े रहने का आभार 🙏।
हालाँकि ऐसी गतिविधियाँ पहले भी होती रही हैं और बहुत उत्कृष्ट बन पड़ी हैं . जैसे ऊषा जी द्वारा दिये चित्रों पर कविता लिखना , उससे पहले एक सूखे पेड़ के चित्र पर बड़ी ही उत्कृष्ट कविताएं लिखी गईँ थीं .. प्रिय कवि या लेखक की पसन्दीदा रचना पकी प्रस्तुति , जीवन के कुछ अविस्मरणीय और मार्मिक प्रसंग , एक दूसरे के ब्लाग की पसन्दीदा रचनाए व उनसे जुड़े गीत , एक दूसरे की कविताओं की प्रस्तुति , नारी की स्वतन्त्रता का सही पर्याय क्या हो जैसी चर्चा ..आदि गीतों से परे बड़े शानदार और संग्रहणीय टास्क रहे हैं . यह सब ग्रुप की विदुषी बहिनों की प्रतिभा का परिणाम है . इस प्रतिभा को मेरा नमन अभिनन्दन .
हालाँकि ऐसी गतिविधियाँ पहले भी होती रही हैं और बहुत उत्कृष्ट बन पड़ी हैं . जैसे ऊषा जी द्वारा दिये चित्रों पर कविता लिखना , उससे पहले एक सूखे पेड़ के चित्र पर बड़ी ही उत्कृष्ट कविताएं लिखी गईँ थीं .. प्रिय कवि या लेखक की पसन्दीदा रचना पकी प्रस्तुति , जीवन के कुछ अविस्मरणीय और मार्मिक प्रसंग , एक दूसरे के ब्लाग की पसन्दीदा रचनाए व उनसे जुड़े गीत , एक दूसरे की कविताओं की प्रस्तुति , नारी की स्वतन्त्रता का सही पर्याय क्या हो जैसी चर्चा ..आदि गीतों से परे बड़े शानदार और संग्रहणीय टास्क रहे हैं . यह सब ग्रुप की विदुषी बहिनों की प्रतिभा का परिणाम है . इस प्रतिभा को मेरा नमन अभिनन्दन .