परिंदे व दीवारें - कविमन की बगिया में
गाएँ गुनगुनाएँ समूह में हर सप्ताह मिले टास्कों से समूह की नियमितता बनी रहती है| कभी कभी गीतों के अतिरिक्त कुछ टास्क अलग हटकर मिल जाते तो उन्हें सहेज लेने को जी चाहता है| ऐसा ही एक टास्क ग्रुप में लम्बे समय पश्चात् पुनः जुड़ कर सक्रिय हुई सदस्या शीतल माहेश्वरी ने दिया| उन्होंने एक चित्र दिया जिस पर सभी को अपने भाव व्यक्त करने थे| एक ही चित्र पर भावों ने कैसे कैसे रंग बदले, यह देखना अभूतपूर्व रहा| इस पोस्ट में पहले वही चित्र दे रही हूँ| उसके बाद रचनाकारों की कविताएँ होंगी| रचनाकारों का क्रम अभिव्यक्ति आने के क्रम के अनुसार रखा गया है|
सर्वप्रथम शीतल द्वारा दिया गया चित्र देखें|
टास्क का चित्र |
शीतल माहेश्वरी |
शामिल कवयित्रियाँ--
1.रचना दीक्षित जी
2.ऋता शेखर
3.शोभना चौरे दी
4.प्रतिभा द्विवेदी जी
5.साधना वैद दी
6.अंजू गुप्ता तितली जी
7.रश्मिप्रभा दी
8. उषा किरण दी
9. गिरिजा कुलश्रेष्ठ दी
10. संध्या शर्मा जी
11. अर्चना चाव जी
12. पूजा अनिल
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1.
रचना दीक्षित |
कभी फुर्सत में देखती हूँ
अपने घर से
पीछे वाले घर की
एक विधवा दीवार.
तनहा
अधमरा पलस्तर
दरकिनार हो चुका उससे.
शांत, उदास, मायूस
अपने साथ जुड़े घर की तरह.
मिलने जुलने वालों में,
दुख बाँटने वालों में
बची है तो बस
एक हवा और धूप.
देखती हूँ
अचानक बरसात के बाद
घर का तो पता नहीं
पर दीवार बहुत खुश है.
नए मेहमान जो आये हैं
कुछ नन्ही पीपल की कोपलें,
नन्ही मखमली काई
और फिर
उनसे मिलने वाले नए आगंतुक
तितली, चींटीं, कीड़े, मकोड़े,
कुछ उनके अतिथि
गौरय्या, कबूतर
और न जाने कौन कौन ...
खूब चहल पहल है.
घर का तो पता नहीं
पर हाँ! दीवार बहुत खुश है.
सोचती हूँ
पर कितने दिन ....
-- रचना दीक्षित
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2.
ऋता शेखर 'मधु' |
चाहे हो बेरंग दीवारें
चाहे कोई उत्साह न हो
हम वह परिंदे हैं बन्धु
अपनी कलरव से प्यार करते हैं
उतने ही प्यार से कण कण में
उत्साह का संचार करते हैं
पँख कमजोर लगते जब कभी
पंखों में रंगीन स्याही भरकर
शब्द शब्द को गुलजार करते हैं।
मन हमारा भी उदास होता है
जब कोई अपना न
आस पास होता है
एक हम होते हैं
और एक होती है
पिटारी यादों की
वहाँ हम खास होते हैं
यही तो परिंदे हैं यादों के
जो जीवन भर साथ रहते हैं
जीवन चलने का नाम है
कानों में कोमलता से कहते हैं
और हम फिर स्वच्छंद उड़ान लिए
नवीन सोच के साथ
नभ नापने निकल पड़ते हैं
-- ऋता शेखर
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3.
शोभना चौरे |
हमारा संयुक्त परिवार
इसकी साक्षी है ये दीवार
बहुत कुछ कहती है
ये मुंडेर
जहां होते थे बेहिसाब
अनाज के दाने
बेहिसाब होते थे,
हमारे संगी साथी
भरे पेट जब
उड़ता था हमारा झुंड
तो ये दुनिया
हमारी खूबसूरती को
करती थी कैद
अपने कैमरों में,
अपने कैनवास पर
आज वो हमारे
हरे भरे "नीड़"
विकास की
दौड़ में जमींदोज
हो गए
बैठा है
हमारा एकल परिवार
साथ होते हुए भी दूर है
इस बदरंग दीवार
के सहारे!!!!!
-- शोभना चौरे
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4.
प्रतिभा द्विवेदी |
छीन लिया है आसरा,
दाना पानी दूर ।
कॅंकरीटी वन में हुए,
जीने को मजबूर।।
उपवन ऊर्जित हमीं से,
फूलों में मकरंद।
माटी में बोते रहे,
हरियाली के छंद ।।
कुछ न बिगाड़ा आपका,
सदा दिया है साथ ।
अब सांसें हैं सृष्टि की,
मनुज आपके हाथ ।।
-- प्रतिभा द्विवेदी जी
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5.
साधना वैद |
मेरी छत की मुंडेर पर
हर रोज़ सैकड़ों परिंदे आते हैं
मैं उनके लिए बड़े प्यार से
खूब सारा बाजरा डाल देती हूँ
मिट्टी के पात्र में मुंडेर पर
कई जगह पानी रख देती हूँ
उनमें कहीं इसके लिए स्पर्धा न हो
मैं बहुत ध्यान से ये पात्र
खूब दूर दूर रखती हूँ !
गोरैया, कबूतर, तोते, बुलबुल,
कौए, मैना, बया और कभी कभी तो
कोयल भी मेरी छत पर खूब
मजलिस जमाते हैं !
मुंडेर पर बैठे फुदकते मटकते
खुशी खुशी कलरव करते इन
भाँति-भाँति के पंछियों को
मैंने कभी झगड़ते नहीं देखा !
किसने मंदिर के कलश पर बैठ कर
भजन गाया और किसने
मस्जिद की गुम्बद पर बैठ कर
अजान दी, किसने गुरुद्वारे की छत से
शब्द पढ़े और किसने गिरिजाघर की
मीनार पर बैठ कर हिम्स पढ़े
कोई बता नहीं सकता !
मेरी छत की इस जर्जर सी दीवार से सटी
यह मुंडेर इन पंछियों का
साझा आशियाना है, आश्रय स्थल है !
किसी भी किस्म के अंतर्विरोधों से परे
ये सारे पंछी यहाँ आकर हर रोज़
सह भोज का आनंद लेते हैं !
इनमें कोई ऊँच नीच, कोई अमीर गरीब
कोई छोटा बड़ा नहीं होता !
सब प्यार से हिलमिल कर रहते हैं
और सह अस्तित्व के सिद्धांत पर
निष्काम भाव से चलते हैं !
मुझे इन्हें इस तरह कलरव करते देख
बहुत आनंद मिलता है !
क्या हम इन परिंदों से
कुछ नहीं सीख सकते ?
क्या हम इन परिंदों की तरह
अपने सारे विरोध भूल
एक ही मुंडेर पर बैठ अपने अपने
गीत नहीं गुनगुना सकते ?
-- साधना वैद
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6.
अंजू गुप्ता तितली |
***
देखो तो ,,,सुनो तो
हम दो
हमारा एक
वो भी है हमसे
विरक्त...
ये कैसा हो चला आज अपना ही रक्त
यूँ मुँह मोड़के खड़ा वो निर्लज्ज
जीवन की सांझ बेला में
जब हो जायेंगे हम अशक्त....
तब कौन बनेगा हमारा तख़्त ?
सिर्फ एक पीठ भर टिकाने को
और सिर सहलाने को?
दवा दारू की तब एक मंजूषा होगी
औऱ न कोई बाकी जिजीविषा होगी
बस वो तो रहता होता काश अपने पास
ये ही रहेगी तब सिर्फ एक अंतिम अरदास
अंजू(तितली)..
अंजू गुप्ता तितली जी
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7.
रश्मिप्रभा |
सुना है, लोग बदल गए हैं
और उनकी कोशिश रही है हमें बदल देने की !!!
पहले सबकुछ कितना प्राकृतिक,
और स्वाभाविक था,
है न ?
हम सहज रूप से मनुष्य के आंगन में उतरते थे,
उनकी खुली खिड़कियों पर
अपना संतुलन बनाते थे ।
खाट पर फैले अनाज से
हमारी भूख मिट जाती थी
चांपाकल के आसपास जमा हुए पानी से
प्यास बुझ जाती थी...
बदलाव का नशा जो चढ़ा मनुष्यों पर
आंगन गुम हो गया,
बड़े कमरे छोटे हो गए,
मुख्य दरवाज़े के आगे
भारी भरकम ग्रिल लग गए !
मन सिमटता गया,
भय बढ़ता गया,
अड़ोसी पड़ोसी की कौन कहे,
अपने चाचा,मामा, मौसी,बुआ की पहचान खत्म हो गई !!
बड़ी अजीब दुनिया हो गई है
मनुष्यों की भांति हमारा बच्चा भी
अपनी अलग पहचान मांग रहा है
निजी घोंसले की हठ में है ...!!!
समझाऊं तो कैसे समझाऊं
परम्परा का अर्थ कितना विस्तृत था
सही मायनों में -
वसुधैव कुटुंबकम् था !"
रश्मि प्रभा
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8.
डॉ उषा किरण |
मेरे आँगन में उतरीं
तीन कुटकुट,
खाया- पिया बिखेरा
फुर्र से उड़ गईं
आकाश में बाकी है
अभी भी धनक
और जमीन पर बाकी है
भीनी सी महक…!!
- उषा किरण
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9.
गिरिजा कुलश्रेष्ठ |
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आसपास अब वीराना.
चिन्ता का ताना बाना .
नहीं कोई दीवारोदर.
कहाँ बनाएँ अपना घर .
कल जो तिनके लाए थे .
घिस घिस परख जमाए थे.
तिनकों में कुछ सपने थे .
छत मुँडेर सब अपने थे .
ऐसा ही होता हर बार .
दुनिया बसने को तैयार .
बिखरा गया कोई तिनके
तब सपने भी गए बिखर .
कहाँ बनाएं अपना घर .
पेड़ जो पिछले साल खड़ा था .
ऊँचा पूरा सघन बड़ा था .
गीत प्रगति के गाने को
चौड़ी सड़क बनाने को .
काट गिराया दर्द बिना
रुदन हमारा नहीं सुना .
क्यों हैं सब इतने निष्ठुर .
कहाँ बनाएं अपना घर .
यह भी अपनी ठौर नहीं .
चलें यहाँ से दूर कहीं .
वन उपवन, हरियाली हो.
अम्बर खाली खाली हो .
मिलता दाना पानी हो .
रहने में आसानी हो .
कोई नीड़ उजाड़े ना .
करे किसी को ना बेघर .
वहीं बनाएं अपना घर .
-- गिरिजा कुलश्रेष्ठ
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10.
संध्या शर्मा |
तिनकों की निगरानी रखना
अपनी कोई निशानी रखना
याद मेरी कहानी रखना.....
आऊँगी चिड़िया बनकर 😊
चिड़िया रानी चीं चीं चूं।
बोल कहां पर रहती तू?
बोली चिड़िया चीं चीं चें।
हर आंगन की बेटी सी मैं।।
चिड़िया रानी चीं चीं चूं।
क्यों बरसों से रूठी थी तू?
बोली चिड़िया चीं चीं चें।
डरती छिपती फिरती थी मैं।।
... संध्या शर्मा...
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11.
अर्चना चावजी |
सुन री सखी
मेरी प्यारी सखी
यहां कोई पेड़ हुआ करता था
उसे ढूंढ लाओ सखी
हरा भरा पेड़ था
डाली डाली पात थे
मां ने बताया था ,वहीं घोंसला बनाया था
जन्मी थी मैं उसकी हरी भरी टहनी पर
सेका,खिलाया और मुझे चूजा बनाया था
धीरे धीरे पंखों को खोल उड़ना सिखाया था
दूर जा पहुंची मैं, कोने कोने हवा के संग
खूब इतराई ,गगन छू आई पर
बार बार मुझे मेरा घर याद आया था
अब अपने संगी संग लौट के आई हूं
लेकिन उस हरे भरे पेड़ को नहीं खोज पाई हूं
खूब आस लिए आई थी वहीं घोंसला बनाऊंगी
हरे भरे पेड़ पर नन्हों को दुलाराऊंगी
थोड़ी सी याद मेरी मां की जो थी मुझे
वही मेरे संगी को लाकर दिखाऊंगी
अब हताश हूं,बहुत ही निराश हूं
दिल पर जैसे बन गया कोई घाव है
कैसे वे चहकेंगे यहां ये तो मुर्दों का गांव है।
-अर्चना
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12.
पूजा अनिल |
आओ, करें बात, उससे सहेली।
सुनें उसके मन में क्या है छुपा?
क्यों है उदास? क्यों दिल दुखा?
ऐसे तो इधर चहकती रहती थी।
जब से चिड़ा गया, आँसू बहाती थी।
हम उसे संग ले आएँगे।
परिवार की तरह रखेंगे।
मन उसका बहलाएँगे।
वो हंसेगी, चहचहाएगी,
हम संग मिल गुनगुनाएँगे।
-पूजा अनिल
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