माँ को पत्र लिखा - टास्क पूजा अनिल



पूजा अनिल के दिए टास्क में सबने अपनी माँ को पत्र लिखा और खूब याद किया, सबके पत्र पढ़ते पढ़ते खूब बार आँखें भर आई।

माँ जैसा कोई नहीं , आप भी पढ़िए - 

 

 

माँ तो है माँ🙏......

 

 मेरी भोली माँ 

बहुत सारे वाले प्यार के साथ आपको ढेर सारी जफ्फियां

 

##मेरी शादी के डेढ़ साल बाद ही मुझे घर से रुख्सत कर तुम जहां से रुख्सत हो ली ,,होली के ठीक एक सप्ताह बाद😭

,....ये कैसी विदाई थी  माँ?

औऱ मेरे लिए तो इस डेड साल के भी 9 महीने ही मिले

क्योंकि जानू की प्रेग्नेंसी के चलते, ससुराल की उस परम्परा का निर्वाह भी तो किया कि  इस दौरान मायके नही जाते,,, और जानू के आने के ठीक 15 दिन पहले ही उससे मिले बिना आपने रुखसती ले ली😖जब मुझे आपकी सबसे ज्यादा जरूरत थी ,,,जब मुझे आपसे मिलने मायके आना था,, जब मुझे बहुत कुछ बताना था ,,जब मुझे आपसे बहुत कुछ सुनना समझना था,

 वो आज भी कहना बाकी है माँ...., बोलों में रखा है मैने सब सम्भाल कर....मिलूँगी आपसे जब...तब बताऊंगी सब एक एक कर

बस आप मुझे खाली अपने सीने से लगा सुनती रहना सब...👍

चाहे बोलना मत कुछ ,,    ,क्योंकि मैं आपको बोलने का मौका ही नही दूँगी😝

मेरे पास अनकही अनगिनत बातें जो होंगी🤗

##न जाने क्यों लग रहा ऐसा आज कि जब मैं माँ से मिलूँगी तो वही लकड़ी वाला पालना माँ फूलों से सजाएं लिये बैठी होंगी जो अपने बड़े होने तक घर के किसी टांड़  पे पड़ा रहता था कबाड़े सा औऱ मुझे देखते ही  आँचल में भर गायेगी """नन्ही कली सोने चली हवा धीरे आना"""यूँ फिर हौले से उस पालने में लिटा देगी अपने  सानिध्य में,,,

क्योंकि मैं उसको बड़ी मिलूँगी ही नही,,,मैं बड़ी हुई भी कहाँ🤔..वैसे मैं एक राज की बात बताऊँ माँ,.. जब मैं दूसरी बार माँ बनने चली थी तो मैं अक्सर सोच करती थी..जैसे आपने मुझे गर्भ में धारण किया था वैसे ही मुझे भी आपको अपने गर्भ में धारण करना था,,बस इस सोच के चलते कि बड़े जब बुजुर्ग हो जाते हैं तो वो बच्चे बन जट्स हैं और उनके बच्चे उनके  माँ बाप,,क्योकि मैं आपको बढ़ता हुआ देखना चाहती थी..और खुद को बड़ा देखना चाहती थी..पर दूसरी बार भी मैने एक बेटे को जन्म दिया..मैं फिर रह गयी ना छोटी की छोटी..

अब तो आपको यकीन आ गया होगा ना ऐसी अलबेली सोच आपकी अलबेली(छुटकी)तितली  ही रख सकती है... ये राज मैने आज तक किसी से साझा नही किया था,,आज आपको बताया बस,क्योकि कुछ अजीब सी सोच जो थी,,कोई कुछ भी बात बन देता फिर

मन नही लगता माँ ..शायद इसीलिए आप आज भी हर दूसरे चौथे रोज मुझसे मिलने मेरे स्वप्न में आती हो..आती रहना माँ... मुझे इस बात की जरा भी परवाह नही है जैसा कि लोग कह देते हैं मृत व्यक्ति का स्वप्न में आना अच्छा नही मानते,,पर मुझे अच्छा लगता है ना,, तो मेरी खातिर..

हम जब तक वेसे नही मिलेंगे तो ऐसे ही मिलते रहेंगे..क्यो ??ठीक कह रही हूँ ना माँ

 

 

माँ की तरह कोई ख्याल रख सके,ये तो सिर्फ एक ख्याल ही होगा माँ🙏

 

##ख्यालों को होना ही नही चाहिये.....😢👍

 

उस हरी सदन की सबसे छोटी बच्ची ,जो अब ना बड़ी बन पा रही है, ना छोटी ही रह पा रही है........ 

 तितली.....

 

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माँ 

प्यारी माँ,

सादर प्रणाम और ख़ूब सारा प्यार तुम्हे 

मैं यहाँ पर कुशलता पूर्वक हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि तुम जहाँ कहीं भी हो वहाँ इस धरती पर मिले शारीरिक कष्टों से मुक्त रखें। तुम कहाँ चली गई हो माँ ! क्या तुम्हे हमारी याद नहीं आती?

पर मुझे तुम्हारी हर पल याद आती है माँ !

कितना कुछ अधूरा छोड़ गईं थी तुम!

तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी हर ज़िम्मेदारी पूरी करने की भरसक कोशिश की है मैंने। तुम्हारा मन तो करता होगा न कि जानने का हम सभी के बारे में ?

 तुम्हारे जाने के तेईस वर्ष हो चुके हैं माँ! मैं तुम्हे इन तेईस वर्षों का हिसाब - किताब , सुख - दुःख सब कुछ बताना चाहती हूँ। तुम्हारी बड़ी बेटी हूँ न! तो मेरा कर्तव्य भी बनता है सारी बातों से तुम्हे अवगत कराऊँ। 

 तो शुरुआत करती हूँ तुम्हारे जाने से !

तुम चली गईं लेकिन तुम्हारे जाने के बाद के जो कर्मकांड थेउन्होंने हमें रोने का समय तक न दिया! जो कुछ करना होता था तुम्ही तो बताती थी! तुम ही नही थी तो किससे पूछते हम सब! जैसे तैसे सब विधि विधान पूरे हुए।

 तुम्हारे जाने के तेरह दिनों के बाद हम वापस नागपुर आ गए थेज्यादा रुक भी नहीं सकते थे क्योंकि रोजी-रोटी का ख्याल भी रखना जरूरी था। यहाँ आकर रेखा से मिलने गए ! रेखा तीन बार की नाउम्मीदी के बाद माँ बनने वाली थी , आठवाँ महीना चल रहा था उसका।  डॉक्टर ने उसे जबलपुर ले जाने से मना किया थाइसलिए हमने उसे बताया भी नहीं था कि तुम हम सबको छोड़कर चली गई हो। रेखा ने जब तुम्हारी ही तेरहवीं का प्रसाद यह कहकर हमें दिया "दीदी ये प्रसाद ले ले,  किसी पुण्यात्मा सुहागिन की तेरहवीं का है " सुनकर कलेजा मुँह को आ गया था ! कैसी बताती वो अपनी ही माँ थी बहन!  

सितम्बर में रेखा की डिलीवरी के समय से पहले डॉक्टर ने तुम्हारे बारे में बताने कहा थाक्योंकि बाद में बताने पर दिमाग पर बुरा असर होने की संभावना थी. जबलपुर से आये पापा और बबलू के मुंडन किये हुए सिर और नीटू को साथ देखकर रेखा को बताने की ज़रुरत ही नहीं थी कि तुम नहीं हो ! दुःख और दर्द का वो अहसास आज भी उसकी आँखों से बरबस छलक उठता है। उसने २९ सितम्बर को एक बेटे को जन्म दिया था माँ जिसका नाम ओजस है , बिलकुल अपने नाम की तरह। ओजस वी एन आई टी से इंजीनियरिंग करके अभी बिट्स पिलानी से बी टेक की पढ़ाई कर रहा है।  

इसके बाद दो बड़ी ज़िम्मेदारियाँ जो तुम हम बच्चों पर छोड़ गई थीवो थी नीटू और बबलू का विवाह। 

नीटू का विवाह फिर भी हमारे लिए सरल था क्योंकि वर तुम तय करके गईं थी। २ मई २००१ को हम तीनों ने मिलकर नीटू का विवाह कर दिया हैउसके पति राजकुमार तुम्हारा बहुत अच्छा चयन थाराजकुमार ने अपने परिवार और नीटू को बहुत अच्छे से संभाला लिया है। इन दोनों की एक प्यारी सी बेटी अक्षरा है जो अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद एम बी ए की तैयारी कर रही है। 

इसके बाद आवश्यकता थी उस तुम्हारे बिना वीरान पड़े  घर में एक सुशील बहु की। तो जैसा तुम कहती थी कि "बेटा! बबलू के लिए पढ़ी- लिखीसुशील बहु लानाजैसे मैंने दामाद चुनंने में भी प्राथमिकता उनके गुणों को दी है। वैसी ही बहु भी होनी चाहिए।" तो माँ बिल्कुल वैसी ही बहु सीमा। पढ़ी - लिखीसुसंस्कारित। तुम्हारे जाने के बाद २२ वर्षों तक पापा की देखभाल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इन दोनों का भी एक बेटा “अयन” है। अयन भी कुशाग्र बुध्दि वाला बच्चा है जो गवर्मेट इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। 

माँ तुम हमेशा से चाहती थी न कि तुम्हारा अपना खेत हो ? तो बबलू (मेरा भाई) ने बहुत बड़ा खेत ख़रीदा है। हर साल जब खेत लहलहाता है तब वह हम तीनों बहनो को आग्रह करके जबलपुर बुलाता है।  हरा - हरा लहलहाता खेत देखकर मन कहता है कि काश! तुम भी हम सबके साथ होतीं तो कितनी खुश होती!

अब बात करती हूँ तुम्हारे सबसे प्यारे नाती (तब सिर्फ़ अंशुल ही था न) अंशुल की। तुम्हारा छोटा सा “शुली “ बहुत बड़ा हो गया है माँ। एक बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनी में उच्चपद पर है। उसका विवाह तेलगु ब्राह्मण परिवार की सुशिक्षितसुसंस्कारित कन्या कंप्यूटर इंजीनियर स्पंदना से पिछले वर्ष संपन्न हुआ है। स्पंदना के रूप में हमने एक बेटी को पाया है। 

अंशुल तो हमारा ऐसे ध्यान रखता हैजैसे बचपन में हम उसका रखते थे। हँसते हुये कहता है अब आप लोग छोटे हो मैं बड़ा हो गया हूँ। हर बार जब उसके जीवन में कुछ भी अच्छा होता है तुम्हे बहुत याद करता है ! कहता है “नानी होतीं तो ये कहतींकितनी ख़ुश होतीं! मैं उनको यहाँ ले जातावहाँ घुमाता ! अपने साथ ही रखता !”

और हाँ! माँ तुम्हारा वो छोटा सा शुली अब जल्द ही पिता बनने वाला है। हर पल तुम्हारी कमी महसूस करता है। 

माँ जैसा कि तुम और पापा चाहते थे हम चारों भाई - बहन आपस में मिलजुलकर रहें। हम चारों हर सुख - दुःख में एक दूसरे के साथ हैंऔर इसे निभाने में हम चारों के जीवन साथियों की भरपूर सहयोगिता है।  यूँ कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अब हम चार से आठ हो गए हैं। और साथ हैं हम चारों के चार आँखों के तारे (सबके एक ही बच्चा है माँ क्योंकि हमें लगता था कि ज्यादा बच्चों की ज़िम्मेदारियों ने तुम्हे हमसे छीन लिया ! इसलिए हम चारों ने दूसरे बच्चे के बारे में सोचा तक नहीं !)

तुम बहुत जल्दी चली गई माँ ! भला इतनी जल्दी भी कोई जाता है क्याअभी तो तुम जितनी बड़ी थी मैं उससे भी बड़ी हो गई हूँलेकिन तुम्हारे जितनी हिम्मतसाहस और समझदारी नहीं मुझमे !

याद है तुम्हेएक बार तुम जब हॉस्पिटल में एडमिट थीं और अंशुल की परीक्षा थीतब मैं उसे नागपुर में छोड़कर आई थी तुम्हारे पास। एक दिन शाम को तुमने मुझे दुःखी देखकर कहा था “अंशुल की याद आ रही है न बेटा ? समझती हूँ ! गाय को भी गोधूलि पर अपने बच्चे अपने पास चाहिए तो तुझे क्यों नहीं अंशुल की याद आएगी ! तू भी तो माँ है भले ही अपनी माँ के पास है..... ” तो मुझे भी तुमसे कहना है जितने ज़रूरी बच्चे माँ के लिए होते हैं  उतनी ही ज़रूरी माँ भी होती है अपने बच्चों के लिए! 

आज भी मुझे मेरे आने पर तुम्हारी आँखों से छलकती ख़ुशी और प्यार याद आता है। अब भी जब बच्चों की स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ लगती हैंमुझे वो तुम्हारा इंतज़ार याद आता है ! जानती हो माँ! जिस दिन से तुम गई हो हमारे जीवन से छुट्टियाँ ही ख़त्म हो गईं ! इतनी सारी ज़िम्मेदारियाँ और दुःख सुख झेलकर तुम्हारी छोटी सी रानी बेटी उसी दिन से बड़ी हो गई थी जिस दिन तुम उसे छोड़कर गई थी। तुम्हारी दिखाए रास्ते पर चल रही हूंतुम्हारी सीखों का अनुसरण कर रही हूं।

अब मुझसे और ज़्यादा न लिखा जा सकेगा माँ ! मैं जानती हूँ जो न लिखा जा सका है तुम उसे भी समझ लोगी।  

तुमसे बहुत प्यार करती हूँ पर तुमसे बहुत नाराज़ भी हूँ मैं..... ! 

बस तुमसे इतना ही कहना है अगले जनम में तुम ही हमारी माँ बनकर आना। अपनी पूरी ज़िम्मेदारी ख़ुद ही पूरी करना और हमारे सुख - दुःख में सदा साथ रहना। इतनी जल्दी से मत चले जाना माँ  ...... !

तुम्हारी बेटी 

संध्या शर्मा (रानी)   

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प्रणाम माँ

मुझे पता है तुम जहां भी हो इस दुनिया से ज्यादा सुकून से हो। तुम कहती थीं न  कि खुश रहो। आज मैं तुम्हें कहती हूं खुश रहो। तुम्हारे बारे में कुछ कहनातुमसे बातें करनाहर बात का दिल करता है। यूं समझ लो जो तुम्हारा दिल करता है। अब वही मेरा दिल भी करता है। जी करता है की मैं गजानन गणेश हो जाऊं तुम्हारी एक परिक्रमा लगा लूं।  सामाजिक सरोकार तो जान गई हूं पर साझा करने को कोई आत्मीय जन बचा ही नहीं। यहां हर दूसरा इंसान गलतफहमी का या हीन भावना का शिकार है। किसको किसको समझाऊं कहां अपना कलेजा खोल कर रख दूं

 

क्या कहूं माँ,

 कुछ कहा जाता नहीं,

अब सहा जाता नहीं,

तुम बिन रहा भी तो जाता नहीं

...........🤔🤔🤔😏😏😏😏

मैं थक गयी हूँ डर गयी हूँ

हर तरफ शोरोगुल की

आमदरफ्त से व्याकुल हूँ

मैं छुपना चाहती हूँ

जहाँ न हो कोई आवाज़

बहुत सुना सराहा संगीत

पर अब नहीं

जी ली जिन्दगी चकाचौंध भरी

पर अब नहीं

मैं चाहती हूँछुपना ऐसी जगह

न रौशनीन शोरन संगीत हो जहाँ

माँ तुम ही तो हो एक ना

जो छुपा सकती हो ऐसा

कोई देख ना सके मुझे

मात्र तुम महसूस करो मुझे

पहुंचें तुम्हारी साँसे मुझ तक

आकुल हूँ मधुर संगीत सुनने को वही

रखना चाहती हूँ महफूज़ अपने आपको

गुनगुनाहट से तुम्हारे लहू की

करोगी ना यह सब एक बार फिर

मेरे लिए बस मेरे लिए

स्वीकार करो एक बार मुझे

एक बार फिर जगह दो

अपने गर्भ में मुझे

इस बार बहुत सुकून से रह लेंगे हम दोनों

क्योंकि मैं भी अब हूँ

एक माँ

 

तुम्हारी अनुकृति

तुम्हारी लाडली

गुड़िया रचना दीक्षित 

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मां (बाई) को पत्र

पूज्य मां प्रणाम🙏

आपके आशीर्वाद से हम सब भाई बहन अपने अपने परिवार के साथ सुखी है।

बाई तुम मुझे बहुत याद आती होऔर वो तुम्हारी आंखे

जिसमें अपार ममता भरी होती थी जब मैं शादी होकर मुंबई जा रही थी सारा परिवार स्टेशन छोड़ने आता था किंतु तुम घर के बड़े दरवाजे पर डबडबाई आंखों से मुझे निहारती रहती थी।

बाबूजी के साथ जितने साल बिताए तुमने उससे ज्यादा उनके बिना बिताए तुमने।दादा दादी के साथ रहकर दादी के ताने,लोगों के ताने और अपना  अस्वस्थ शरीर लेकर सदा खुश मिजाज बनी रही।

सुबह 5 बजे से तुम्हारी मधुर आवाज की प्रभाती पूरे बाड़े को जगा देती और तुम्हारे चचेरे देवर नंदे अपनी भाभी के पास बैठ जाते।हमारी तो तुम मां थी पर उनकी भाभी पहले थी तुम्हें आज भी सम्मान से प्यार से याद करते है।

तुम कभी भी बाजार नहीं गई,पिताजी दुकान से साड़ी का गट्ठर मंगवा देते  उसी में पसंद कर लेती । अ पने बदरंग हुए कपड़ों को 2 रुपए का रंग मंगा लेती और रंग लेती।

सादा जीवन उच्च विचार रखने वालीनर्मदा किनारे मायका ,नर्मदा मां मन में बसी हुई और नर्मदा किनारे ही प्राण त्यागने वाली तपस्विनी मां तुम बहुत याद आती हो।

तुम्हारी प्रिय बेटी

शोभना

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मेरी प्यारी मम्मी,

बहुत सारा प्यार,

सबसे पहले तो ये ही समझ नहीं आ रहा थापत्र में शुरुआत कैसे करें...पहला मौका है न आपको ऐसे पत्र लिखने का...। कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि आपको पत्र लिखना पड़े। हमेशा साथ और पास जो रही आपके...और आप भी कहाँ कभी हमें छोड़कर गई इतने दिनों के लिएजब चिट्ठियाँ भेजने का समय ही मिल सके। अधिक-से-अधिक एक हफ़्ता...वो भी शायद एक-आध बार ही न...ज़्यादा दिन होने लगते थे तो इधर जितना बेचैन हम होतेउधर आपको भी मेरी और चुनमुन की चिंता होने लगती। सच कहूँ तो शायद चुनमुन की ज़्यादा...तभी तो आप रोज फोन पर भी सिर्फ़ उसी के बारे में पूछती रहती। याद हैएक बार कितना चिढ़ गए थे हम इस बात पर...और आपने कैसे मनाया थाये कहते हुए...अरेतुम्हारे बारे में क्या पूछतेतुम तो बड़ी होसमझदार हो...इसलिए बच्चे के बारे में ही तो पूछेंगे नसब समझते थे हम मम्मीआपकी चालाकी...मूल से सूद प्यारा होता है नऔर ये वाला सूद प्यारा होता भी क्यों न...हमसे कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा तो आपने उसके लिए त्याग किएहमसे हज़ार गुना ज़्यादा उसका ध्यान रखा। सच कहें मम्मीआपके रहते हमको कई बार तो लगता ही नहीं था कि हम उसकी माँ हैंबल्कि बहुत दफा उसके साथ एक भाई-बहन वाली फीलिंग आती थी...। छोटी-छोटी नज़र आने वाली ढेरों बड़ी ज़िम्मेदारियाँ आपको उठाते देख हम तो बस मस्त...। लगता थालाइफ हो तो ऐसी...।

अब याद करते हैं तो अपनी ज़िंदगी का कोई ऐसा पल याद नहीं आता जिनमें आप शामिल न रही हों। आपको देखे बिनाआपकी आवाज़ सुने बिना कहाँ चैन था हमको...हमको बस आपका साथ चाहिए था। शायद यही कान्ट्रैक्ट था अपना उस ऊपरवाले के यहाँतभी तो पूरे समय का इंतज़ार किए बिना हम सात महीने में ही टपक पड़े इस दुनिया में...। माँ-बच्चे में से सिर्फ़ एक बचेगाकहने वाली डॉ बोरबंकर को पहली बार देखकर शायद हम मन-ही-मन हँसे होंगे...। अपुन का फुल टाइम कान्ट्रैक्ट हुआ है डॉक्टर आंटी...ऐसे खाली-पीली जाने देगा क्या...और देखिए न मम्मीआपने अपना फुल टाइमअपनी अक्खा ज़िंदगी अपुन के नाम कर दी। आप मेरे लिए क्या नहीं थी...माँएक दोस्तराज़दारमार्गदर्शिकागुरुवगैरहवगैरह। सच कहें तो आप मेरा तकिया थींजिससे लिपटकर हम चैन से सो भी सकते थे और रो भी सकते थे।

आपके साथ कितनी यादें हैंआपसे आपके बाद का कहने को कितना कुछ हैपर अभी यहाँ कितना लिखेंसब तो लिख भी नहीं सकतेवरना चिट्ठी नहींपूरा पोथा तैयार हो जाएगा। वैसे आपको एसएमएस तो करते ही हैं हम...हमको पता हैआप पढ़ती भी होंगीलेकिन टाइप करना तो अपने भुलक्कड़पने के कारण आप कभी सीख ही नहीं पाईतो जाहिर हैएसएमएस के जवाब तो मिलने से रहे। वैसे हम भी फालतू में आप पर ये टायपिंग-वयपिंग सीखने का बोझ नहीं डालना चाहते थेवरना आपको एक हल्का-सा चैलेंज करते और आप चुटकियों में टायपिंग भी करके दिखा देती। जैसे आपने अपने जीवन में कई लोगों की चुनौतियों का जवाब देते हुए किया था। याद है वो ड्राइविंग स्कूल का इन्स्ट्रक्टर...जिसने आपके इसी भूलने की आदत के कारण खीजकर कहा थाआप बिटिया को ड्राइविंग सिखा दीजिए...आपसे न हो पाएगा...और आपने चैलेंज कैसे कबूल कियाकानपुर के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने में भी आपको कोई दिक्कत नहीं आती थी...वो भी कानपुर की सेंसलेस ट्रैफिक में...तौबा...!

आपके इस भुलक्कड़पने के तो कितने मज़ेदार किस्से हमने अपने संस्मरणों में लिखे हैंजिन्हें पढ़ते हुएउन पलों को याद करते हुए आप भी कितना हँसा करती थी। आपको हँसते देखना किसी गुलाब को खिलते देखना जैसा था। ज़िंदगी के दिए काँटों के बीच भी खिलखिलाता-खिलता हुआ रूप...।

आप लाख भुलक्कड़ सहीपर हमसे किए वादेहमें बँधाये ढाढ़स निभाना आप कभी नहीं भूलती थी। हमारी इच्छाओं को अगर तुरंत पूरा करना संभव न भी होताऔर अगर वह कोई सही इच्छा होतीतो आप हमको- हो जाएगाथोड़ा इंतज़ार करो- कहकर सांत्वना दे देती और हम भी संतुष्ट हो जातेमम्मी ने कहा है तो ज़रूर हो जाएगा...और कमाल की बात! ऐसा होता भी था। आप कहती भी तो थी न कि आपकी विलपॉवरआपकी इच्छाशक्ति बहुत दृढ़ है।

तो मम्मीएक बात बताइए न...अभी बीते साल ही तो आपने हमसे कहा था...बाकी हर बात की चिंता तुम हम पर छोड़ोतुम्हें जो भी सीखना हैजो भी करना है अपने लिएउसपर फोकस करो। हम सब सम्हाल लेंगे...। हमने एक बार फिर विश्वास किया थाउम्र के इस मोड़ पर आकर अपने करिअर को एक नई दिशा देते हुएबहुत कुछ नया सीखते-जोड़ते हुएअपने मन को असीम सुख-शांति देने वाली राह पर चलते हुए किसी नई ऊँचाई पर पहुँचना है...। जब आप साथ हैं तो फिर फिकर नॉट...। तो फिर ऐसे कैसे हो गया मम्मी...आपकी अपने बेटी और नाती के पास वापस लौटने की दृढ़ इच्छाशक्ति पर क्या आपका भुलक्कड़पना इस कदर हावी हो गया कि आपने आँखें बंद की तो उन्हें खोलना भूल गई...आप तो आपआपका दिल भी कमबख्त भुलक्कड़ हुआ और धड़कना भूल गया। बरसों पहले हमें आपके पास आने की जल्दी थी और आपको शायद इस बार वापस जाने की जल्दी थी।

हमने और  चुनमुन ने आपसे कहा था...घर वापस आ जाइए...और आप ऐसा कन्फ्यूज़ हुई कि अपने ‘घर’ ही वापस चली गई...। अब तो आपसे पूछ भी नहीं सकते...वापस कब आइएगा...अगले हफ्ते आपको गए नौ महीने हो जाएँगे। इन नौ महीनों में एक-एक पल कैसे काटा हैहमारा दिल ही जानता है। दुनिया के लिएदुनिया के सामने हम भले ही सम्हल गएलेकिन अंदर ही अंदर कभी-कभी बेहद अकेलापन भी लगता है। पर चिंता न करिएगाहम हैं तो फीनिक्स ही न...। इस बार भी उठेंगे अपनी राख से...।

अब चिट्ठी बंद करते हैं मम्मीमिलेंगे वक़्त आने पर...उस पारउसी ‘घर’ में...।

तब तक के लिए लव यू हमेशामिस यू हमेशा...।

खुश रहिएगा मम्मा डिअर...हम और चुनमुन खूब अच्छे से हैंवैसे ही जैसा आप चाहती थी।

आपकी,

डिम्पल (प्रियंका गुप्ता)

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 मम्मी की रेसिपी अलग से क्या लिखूँ। उस समय क्रिएटिविटी अधिक थी तो सबकी मम्मियां किचन, बुनाई, सिलाई में एक्सपर्ट थीं। मेरी मम्मी भी पराठे, कई चीजों के अचार, तरह तरह की सब्जियाँ, कोफ़्ते बनाने में एक्सपर्ट थीं। सबसे अधिक अतिथि सत्कार में मन लगता था। चूँकि वे नौकरी में थीं तो हर इतवार हमारे यहाँ मेहमानों का ताँता लगा रहता। इतवार हमेशा उत्सव की तरह मनता था। सब उस दिन इसलिए आते कि छुट्टी होती थी। सारे भोजन मम्मी खुद अपने हाथों से तैयार करतीं। अच्छी कुक के साथ अच्छी मेजबान भी थीं। उनकी कर्मठता की चर्चा स्कूल से लेकर परिवार में, सब जगह थी। स्वभाव से उतनी ही हँसमुख, विनम्र, मृदुभाषी थीं। उनका कहना था कि लोग भोजन से अधिक अच्छे व्यवहार को याद रखते हैं। मेरे दादा तीन भाई थे और तीनों दादा का लंबा चौड़ा परिवार था। सभी रिश्तों को उन्होंने बड़े जतन से संजोया। हम सभी आज भी जुड़े हुए हैं। वृहद व्यक्तित्व को लिखना मेरे लिए सम्भव नहीं। एक कण भर भी उनकी कर्मठता और विनम्रता मिल जाये तो उनकी पुत्री बनना सार्थक हो जाये। 🙏🙏

ऋता शेखर मधु 

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परम आदरणीय मेरी प्यारी मां 

 तुमसे बिछड़े बहुत दिन हुए।लगभग दो वर्ष अम्मा।जब तुमने इस दुनियां से जाकर हम सबको तन्हाई की गोद में छोड़ दिया था। अम्मा तुम्हारे जाने पर तो लगा था जैसे दुनिया ही सूनी हो गयी। बहुत खालीपन और बहुत सन्नाटा पसर गया था जीवन में ।कई महीनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता था।सूना सूना हर ओर लगता था, मन कहीं नहीं लगता था। धीरे-धीरे दुनिया चलने लगती है कोई रुकता नहीं, आख़िर ज़िन्दगी जीनी है।एक मां ही है जो बेहद प्यार करती है भले ही ऊपर से डाटती -फटकारती है।कितनी मेहनत करके हमें पाला था। स्कूल पढ़ाने भी जातीं थी।मुझे याद आता है अम्मा तुम सारे घर के काम व्यवस्थित करके अप-टू-डेट होकर विद्यालय जातीं थीं और लोटते में हम सब के लिये कभी-कभी फल लेकर आतीं थीं।कितना अच्छा था बचपन और तुम्हारे साथ बीते वो पल।सच कहती हूं जब-तक माता-पिता का हाथ सर पर रहता है वही जीवन होता है। फ़िर हमारी जिम्मेदारियां रह जातीं हैं बस। और सब ठीक है।लिखना तो बहुत कुछ चाहती हूं, जितना लिखूं कम है। यहां हम सब भाई बहिन मज़े में हैं। तुम्हारे जाने के एक साल बाद भाईसाहब भी चले गये हार्ट अटेक हुआ था उन्हें चित्रकूट से पूजा के बाद घर नहीं लोटे, रेलवे स्टेशन पर ही ट्रेन की भागम भाग में अटेक आ गया।पर अम्मा पता नहीं जाने वाले कहां चले जाते हैं।शेष फ़िर कभी... 

 सादर प्रणाम 

 तुम्हारी बेटी 

 सुनीति

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आदरणीय माँ

 मैं कुशल हूँ और आप जहाँ भी हों कुशल हों, ईश्वर से यही कामना करती हूँ। आपको सबसे ज्यादा मेरी चिंता रहती थी। संयुक्त परिवार और मेरे जीवन की भागदौड़ से और आने वाले झंझावातों को आप इतनी शिद्दत से महसूस करती थी। आप दुनिया की सबसे अलग माँ थीं, इस बात को मेरे ससुर जी जैसे अक्खड़ व्यक्ति ने स्वीकार किया था। जब बाबूजी अपने कैंसर की आखिरी अवस्था में थे और उनको देखने वाली मात्र मैं थी। अचानक पापा का चला जाना और मुझे खबर न मिलना। चार दिन बाद टेलीग्राम मिला था। मैं किस हाल में पहुँची थी, बस एक दिन रुकी और दूसरे दिन आपका ये कहना - "बेटा जाओ एक पिता तो चले गये, जो हैं उनको देखो जाकर, उन्हें तुम्हारी जरूरत है।" जब मैं आ गई तो बाबूजी के पास पहुँची तो बोले - "बेटा तुम आ गईं, मैं समझ रहा था कि माँ को छोड़कर कैसे आ पाओगी?" तब आपके कहे शब्द बताये तो कहने लगे "तुम्हारी माँ धन्य है।" माँ तुम्हारी शिक्षायें थीं। जब मैं वहाँ से चली थी तो भगवान से यही कहकर चली थी कि हे ईश्वर जैसा व्यवहार मैं अपने सास-ससुर से करूँ वही आप मेरे माँ-पापा को भाई-भाभी से दिलवाना। ये बातें मैंने कभी बताई ही नहीं थी। अब सुन लीजिए। आप गईं, भैयाजी गये वह देहरी पराई सी लगने लगी। वह शहर छूट सा गया। माँ दिल हल्का हो गया। जहाँ भी हो खुश रहिए । शेष कुशल है। 

 आपकी रेखा

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एक चिट्ठी मेरी अम्मा के लिए - 

 अम्मा

 तुम कहा करती थी जिसने भी नदी का प्रलाप सुना हो मैं उससे मिलना चाहूँगी … ! तुम्हारी तरह मैंने भी शिद्द्त से चाहा मिलूँ उन सिसकियों से जो हँसी के पीछे दुबकी होती हैं इस इंतज़ार में कि कोई रख दे सर पर हाथ और हँसी में कैद बेचैनियाँ बाहर निकल आयें … स्पर्श की अनुभूति के लिए - नदी में हाथ डाला वह बहती रही … बहती रही उस बहाव में मैंने जाना … प्रलाप सत्य का दहकता अंगारा है !!! …… फिर महसूस किया, नदी अपना प्रलाप खुद सुनती है किनारे तक आँख मूंद लेते हैं नाव में बैठे सहयात्री उसमें गीत सुनते हैं वह भी प्रेम भरा सागर से न मिल पाने की विवशता तो अनुमान की कसौटी पर होती है मलबों के ढेर को बेबसी से आत्मसात करते हुए नदी हाथ-पाँव मार रही है कोई नहीं देखता .... फिर भी, एक विश्वास लिए तुम्हारा कहा लिखकर कुछ दरवाजे मैंने खटखटाये - "तुमने नदी को सिर्फ गाते हुए नहीं प्रलाप करते हुए सुना हो तो मैं तुमसे मिलना चाहूँगी …" ………………। अब तक कोई नहीं आया अपने भीतर के प्रलाप से एकाकार होती हुई मैं नदी को जी लेती हूँ सुना है मैंने अपने भीतर के प्रलाप को जाना है तुम्हारे प्रलाप को तो … मिलोगी न मुझसे ? बेटी मिन्नी। (रश्मि प्रभा)

 

प्यारी अम्मा

 तुम एक उम्र की कहानी नहीं हो तुम हम सबकी वह प्रतिध्वनि हो जिसे अपने एकांत में बोलकर तुम सुनती थी और खुश हो जाती थी तुम हमारा वह सपना हो जिसमें कोई झंकृत कर मन के तार तुमसे कहता था 'मैं तुम्हारा हूँ' तुम हमारे लिए दर्द का वह पहला एहसास हो जिसे ऊँगली कटने पर तुमने जाना महसूस किया ! हमने भी जब तुमको दर्द से रोते देखा दर्द की अनुभूति हुई और हमने भी सोचा - यह सूई कौन चुभो रहा ! अम्मा, तुम अपने आप में हमारे लिए एक कहानी हो जिसे जितना भी सुनो, सुनाओ उतना ही वह गहराती है किसी महाग्रंथ से कम नहीं तुम ! पृष्ठ खोलो तो कभी अगर की खुशबू कभी विस्मित रास्तों का भय कभी हौसले का मजबूत तिनका जो टूटकर भी पार करता है सिर्फ खुद को नहीं अपने सभी अपनों को कभी अग्नि-परीक्षा कभी वन-गमन कभी दशरथ सी माँ का अंत और राम सी स्थिति तुम्हारी ! तुम, तुम्हारा सौंदर्य और तुम्हारी कल्पना इसकी व्याख्या क्या होगी जब कोई तुम्हारे नहीं होने के दुःख पर उम्र पूछता है … तुम उम्र नहीं थी अम्मा तुम उम्र नहीं थी तुम अम्मा थी जिसने हमें अपने अंदर सिर्फ़ नौ महीने रखा ही नहीं, हमें दी गईं वेद ऋचाओं सी अपनी सोच को युगों के रूप में सींचा जीवन के नौ रस का ज्ञान दिया संगीत के सप्तसुरों की स्थापना की नट की तरह जीवन रुपी रस्सी पर चलना सिखाया अम्मा, तुम क्या थी तुम क्या हो शब्द मात्र में कहना आसान नहीं बिल्कुल नहीं !!! 

 रश्मि प्रभा

 

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बस इतना ही कहेंगे की कभी कभी मन बहुत कचोटता है जैसे लगता है कहीं से मम्मी आ जाए उनका फोन आ जाए कहीं से तो आकर पूछे की कैसे हैं हम तबियत खराब हो तो बार बार फोन करे बच्चों को पूछे.... अब तो मायके जाने का भी मन नही होता

शुचि पांडे 

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मां मैं आपको याद करके कभी उदास नहीं होती। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैंने आपको याद किया और मैं रोई। जानती हो मां ऐसा क्यों होता होगा। क्यों मैं नहीं रोती आपको याद करके? पहली तो बात मां आप खुद रोंदू नहीं थी। मैंने आपको रोते हुए शायद ही कभी देखा था। हां, बहनों की मृत्यु छोड़ दो तो उसके अतिरिक्त मैंने आपको रोते नहीं देखा। पिता की मृत्यु के बाद भी जब मैं आई तब तक आप संभल चुकी थी। मुझे नहीं मालूम कि आप उनके मृत्यु पर रोई थी क्या। पर आपकी तबीयत खराब थी उस समय। आंसू बहाने वाली मां मुझे याद नहीं कभी भी। कभी याद नहीं है कि आपने आंसुओं के बल पर कुछ पाया हो, किसी से कुछ करवाया हो। आंसू आपके लिए कभी शस्त्र नहीं बने। मेरे लिए भी नहीं बने। हां, तो असली कारण आपके लिए नहीं रोने का मेरा यह है कि मैंने और आपने इतना अच्छा समय साथ बिताया है। और आपके वृद्ध होने के बाद तो बहुत बार हम साथ रहे हैं। कितनी अच्छी शामें साथ में बीती हैं, कितनी गप्पे मारी हैं। शायद बेटियां इसलिए रोती है क्योंकि मां उनके पास आकर रहती नहीं। मेरे लिए तो यह समस्या कभी नहीं हुई। हर साल सर्दियों में जब भी मैं किसी गरम जगह रहती थी तो मैं आपको व पिताजी को अगवा कर लेती थी। तो ऐसे हमने कितने साल वे सर्दियों के 4 - 5 महीने साथ बिताए। भर मन हमने बातें की, विचारों का आदान-प्रदान किया, पुस्तकों पर चर्चा की। संसार की कोई बात या समस्या ऐसी नहीं थी जिस पर हमने चर्चा नहीं की हो। यहां तक कि मैं जब कंप्यूटर पर कुछ पढ़ती थी तो हर दोपहर आपको पढ़ पढ़ कर सुनाती थी। याद है दोपहर को आपको अशोक पांडे का लिखा लपूझन्ना सुनाती थी और आपको लपूझन्ना कितना अच्छा लगता था। जब भी मुझे कोई भी अच्छी पोस्ट मिलती थी तो मैं आपको पढ़कर सुनाती थी। जब तक कंप्यूटर आए तब तक आपके लिए कुर्सियों पर बैठकर उन्हें पढ़ना जरा कठिन हो गया था। अन्यथा मुझे पक्का विश्वास है आप कंप्यूटर पर भी पोस्ट, किताबें आदि पढ़ती। जब भी मैं आपके बारे में सोचती हूं तो मैं मुस्कुरा देती हूं। तन्नी जब तन्मयता से उपन्यास पढ़ती है तो मुझे उसमें आप दिखती हो। मुझे तो आपकी मृत्यु पर भी रोना नहीं आया था। देखो कितने अच्छे से मैंने आपको विदा किया था। कम से कम एक महीने से आप कह रही थी, बेटा, मुझे अस्पताल मत ले जाना, मुझे डॉक्टर के हवाले मत करना। मुझे आराम से घर में ही विदा करना। फिर आखरी एक सप्ताह तो हर दिन आपका यही कहना होता था, बेटी, मुझे अस्पताल मत ले जाना। मैं बहुत अच्छी जिंदगी जी चुकी हूं। अब एक-दो दिन या एक आध महीना यदि जीवन बढ़ भी जाएगा तो क्या लाभ होगा? देखो यहीं, इसी घर में मुझे आराम से जाने देना। आप रोज तन्नी को खेलते हुए देखती थी और मुस्कुराती थी, खुश होती थी। आखिरी शाम मुझे याद है मैंने आपके पसंद का खाना बना कर आपको खिलाया था। आप खूब तृप्त हुई थी। उस दिन आपकी परिचायिका भी नहीं आई थी। मैं ही आपको बाथरूम ले गई थी। फिर मैंने लाकर आपको सुला दिया था। और आप ऐसी सोई, ऐसी सोई कि अगली सुबह उठी ही नहीं। पूरा दिन सोती रही फिर रात को 1:00 बजे मेरा हाथ पकड़े हुए आपने आखिरी दीर्घ श्वास छोड़ी थी। मैंने भाई भाभी को भी दिन ही मैं बुला लिया था, वे भी आ गए थे। किंतु विदा तो मैंने ही किया। मां पूरा दिन आपका हाथ पकड़े हुए थी। मुझे याद नहीं मेरी आंखों से कोई आंसू बहा हो या मेरे दिल को कोई झटका लगा हो। ऐसा तब होता जब मैंने आपके साथ अच्छा समय नहीं बिताया होता। या यह रह गया या वह रह गया लगता। मुझे यह विचार आते कि मां के लिए यह नहीं किया मां के लिए वह नहीं किया। मुझे ऐसा कभी नहीें लगता कि कुछ ऐसा था जोआपने मेरे लिए नहीं किया या जो मैंने आपके लिए नहीं किया, जो मुझे करना चाहिए था। आप मेरी पहले मां थी, फिर सहेली बन गईं, फिर मेरी बच्ची बन गईं। बच्ची बनते बनते तो समझ लीजिए आपकी उल्टी यात्रा थी। मां, सहेली, बच्ची और फिर आप कहीं अंतरिक्ष के गर्भ में चली गईं। अंतरिक्ष या शून्य जो भी है, मालूम नहीं वह क्या चीज है, जहां आप चली गईं। यात्रा में भी मैं आपको साथ लेकर गई। और आपके चिता के साथ बैठी भी रही। तब भी नहीं रोई। हां, आप को छोड़ कर आना बहुत बुरा लगा था। यह लगा था कि यदि मैं पुरुष होती तो मैं आपको छोड़कर नहीं आती। चाहे जलने में एक दिन लगता, दो दिन लगते, मैं वहीं बैठी रहती। परंतु स्त्री होने की यह बहुत हानि हुई कि मुझे आपको छोड़ के आना पड़ा। बहुत देर बैठी थी, सुबह से शाम तक बैठी थी। परंतु रात होने लगी तो आना पड़ गया। यदि मैं पुरुष होती तो जब तक राख ना बन जातीं मैं आपके साथ रहती। बस एक यही चीज मुझे कचोटती है कि मम्मा मैं आखिर तक आपके राख बनने तक ना बैठ सकी। बाकी कोई ऐसी चीज नहीं लगती कि मैं नहीं कर पाई। मम्मा, मां, इजा, इजुली, देखो मैंने आपके लिए कितनी कविताएं लिखी हैं। सुनोगी क्या? सुनो।

शशि घूघुती बासुती 

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मेरी प्यारी जिया

तुम्हें गए सात साल हो गए लेकिन इस स्वीकारोक्ति के साथ कि मैं तुम्हें सदा के लिये खो चुकी हूँ , जीना बड़ा दुरूह लगता है जैसे बिना तैरना सिखाए ही मुझे गहरी नदी में धकेल दिया गया है . इसीलिये जितना मैंने काकाजी (पिताजी) के लिये लिखा है , तुमहारे लिये लिखने का साहस नहीं कर पाई हूँ . समझ नहीं आता कि क्या लिखूँ ? कैसे लिखूँ ? लिखना शुरु कहाँ से करूँ ? तुम्हारे चारों ओर घिरे रहे निराशा के घने काले बादलों को लिखूँ या बादलों के बीच मुस्कराती किरणों जैसी तुम्हारी सहज सरल आशाओं के उजाले को लिखूँ ? उस छल कटुता और विषमताओं को याद करूँ जो तुम्हें निरन्तर तोड़ने की कोशिश करती रहीं या तुम्हारी शान्तिपूर्ण, स्नेह और क्षमामयी प्रवृत्ति को लिखूँ ? अनुचित के प्रति तुम्हारे विरोध को लिखूँ या परिस्थिति देखकर सहज ही ढल जाने वाले सहज स्वभाव की सरलता को लिखूँ ? जरूरतमन्द और संकटग्रस्त लोगों की तन मन धन से हर समय मदद के लिये तैयार परमार्थ भरे उदार भाव को याद करूँ या कहीं किसी संकीर्ण व्यक्तिवादिता और ओछी मानसिकता से जूझते तुम्हारे व्यथित अन्तर को अपनी अभिव्यक्ति का केन्द्र बनाऊँ ? कहो न माँ, किसी बच्चे की तस्वीर, फूल या चिड़ियों की चहचहाहट से ही खुश होजाने वाली बालसुलभ आशामयी दृष्टि को याद करूँ या आत्मज्ञान के गहन दुर्गम रास्ते में स्वयं को तलाशती जल में कमलवत् रहती तुम्हारी चेतना को समझने का प्रयास करूँ? कितनी अज्ञान व असमर्थ पाती हूँ खुद को . तुम्हारे कार्यों को देखती हूँ तो सचमुच मेरे शब्द वहीं ठहर जाते हैं . दूसरों की खुशी में खुश रहने वाली ( दुख में दुखी तो सब होते हैं) , ईर्ष्या ,छल और झूठ से दूर रहने वाली ,परदुखकातर ,असीम धैर्यवान् , मुसीबत में भी अविचल रहने वाली तुम्हारे जैसी महिला मैंने कहीं नहीं देखी . ‘हम अच्छे तो जग अच्छा .’ या प्रेम और सद्भाव हर दुराग्रह को मिटा देता है.’, जैसी बातों को गाँठ बाँध रखा था तुमने .तभी तो तुम्हें उन लोगों से भी कभी शिकायत नही हुई जिन्होंने तुम्हारा दिल दुखाया .मुझे याद है एक पड़ोसन ने शुरु के दिनों गज़ब की दुश्मनी निभाई .कभी उन्ही के दुखों से दुखी तुम्हारी संवेदना और उनकी सहायता हेतु तत्परता देखकर मैं खुद को रोक नहीं पाती थी -- “जिया ,उनके लिये अब इतना भी मत करो . भूल गईं कि उन्होंने किस तरह तुम्हें परेशान किया ?” तो तुम कहतीं कि “याद रखने से क्या फायदा . आज तो वह खुद ही कितनी परेशान हैं . समय अपने आप सबको जबाब देता है . “ जीवन के पचास पचपन सालों में भी माँ को पूरी तरह न समझ पाने से बड़ा अज्ञान क्या होगा . पास रहकर भी मैं क्या खोजती रही .एक अँधेरे में छोड़कर तुम चली गईं . शब्द जड़ होगए हैं .जिनमें अब तुम्हारे विस्तार को , साथ बीते पलों को तुमसे जुड़े प्रसंगों , व्यथा-वेदनाओं के विस्तार को ,शब्द देने का सामर्थ्य है ही नहीं मुझमें . (पता नहीं कैसे मैं खुद को या कुछ मेरे हितैषी मुझे लेखिका मानने का भ्रम पाले बैठे हैं )... अब ,तुम्हारे बिना मन है वीरान , जैसे तुम्हारे बिना यह मकान . मकान जो घर हुआ करता था , दो कमरों वाला वह बहुत छोटा सा घर , तुम्हारे ममत्त्व की सुगबुगाहट से . घर , जिसकी देहरी-दीवारें भले ही नहीं थीं बड़ीं , छत को सम्हाले खड़ीं मजबूती से . आँगन बड़ा था जैसे आसमान . चहकती चिड़ियों और पतंगों वाला आसमान . सूरज चाँद या सितारों वाला आसमान . जिसकी खिड़कियों से देखा जा सकता था सुदूर क्षितिज तक फैली धूप , हरियाली . बादलों की गडगड़ाहट सुन नाचता मोर या अनीति का शोर खड़खड़ा उठती थीं खिड़कियाँ , विरोध में अनीति के .. चली आती थीं खुशियाँ , बेझिझक दस्तक बिना ही दरवाजा हमेशा खुला रहता था तुम हँसती थीं खुलकर दीवारें भी मुस्कराती थी . गैलरी दोहराती थी तुम्हारे गीत . आँगन में खाट पर लेटे तारों भरे आसमान के नीचे तुम्हारी कहानियों में घुल जाती थी चाँदनी जिया एक और ..बस वह हंस वाली कहानी चाय के कप में मलाई के साथ घोल देती थीं तुम धीरे से ढेर सारी आश्वस्ति, और बातों में विश्वास तुम बिन दीवारें झड़ रही हैं . जाले पुरे हैं हर कोने में . आँगन में उग आए हैं झाड़ झंखाड़ . एक पूरी दुनिया , जो तुम्हारे कारण आबाद थी , चली गई हैं तुम्हारे साथ ही . साथ-साथ स्नेह और अपनत्त्व भी . हर राह सुनसान , जैसे यह मकान तुम्हारे बिना . तुम्हारी बेटी

गिरिजा कुलश्रेष्ठ 

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गीत - "माॅं के लिए" 

 माॅं तू गुलाब सी लगती है 

 कोई मीठा ख्वाब सी लगती है 

 जीवन के कठिन सवालों का 

 इक सरल जवाब सी लगती है 

 तू गीता के श्लोकों सी 

 तू मानस की चौपाई है 

 तुझ में कबीर के दोहों की 

 सारी खूबी समाई है 

 तू कुरान की पाक आयतें 

 बाइबल के गान सी लगती है

 माॅं********************* 

तेरी उॅंगली थाम सभ्यता 

 पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है 

 तेरे आंचल की छाया में 

 संस्कृति सुरक्षित पलती है 

 नव आशा की किरण लिए 

 शीतल प्रभात सी लगती है 

 माॅं******************** 

जीवन के हर ताप को सहकर 

 संतानों को सम्हाला है 

 तू ममता की बारहखड़ी है 

 करुणा की पाठशाला है संस्कारों ,

कर्तव्यों की पूरी किताब सी लगती है 

 माॅं******************* 

जिसने तुझको मान दिया 

 वो सम्मान सदा पाए 

 जिसके घर तू बसती है 

 चारों धाम वो क्यों जाए 

 तेरे आशीषों की धारा 

 पावन प्रयाग सी लगती है 

माॅं*******************

प्रतिभा द्विवेदी 

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-माँ- सारे दिन खटपट करतीं लस्त- पस्त हो जब झुँझला जातीं तब... तुम कहतीं-एक दिन ऐसे ही मर जाउँगी कभी कहतीं - देखना मर कर भी एक बार तो उठ जाउँगी कि चलो- समेटते चलें हम इस कान सुनते तुम्हारा झींकना और उस कान निकाल देते क्योंकि- हम अच्छी तरह जानते थे माँ भी कभी मरती हैं ! कितने सच थे हम आज... जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती घर- गृहस्थी झींकती हूँ तो कहीं- मन के किसी कोने में छिपी आँचल में मुँह दबा तुम धीमे-धीमे हंसती हो माँ...!!! —— उषा किरण

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एक चिट्ठी माँ के नाम मेरी बहुत अच्छी वाली मम्मी, लगभग ३८ साल हो गए तुमको गए हुए लेकिन क्या ३८ पल के लिए भी कभी मेरे ख्यालों से, मेरी यादों से, मेरी चेतना से, मेरे हर क्रिया कलाप से तुम विलग हुई हो? तुम्हारे बिना सुबह कैसी होती है, दिन कैसा होता है, रात कैसी होती है कभी जाना ही नहीं| कभी तुम्हें याद करने की सायास कोशिश तो की ही नहीं लेकिन किसी भी पल तुम्हें भूली हूँ वह भी तो याद नहीं आता| हर छोटे से छोटा काम करते वक्त पता नहीं कैसे पार्श्व से तुम्हारा ही चेहरा झाँकने लगता है| चाहे किचिन में खाना बनाना हो, कविता कहानी लिखनी हो, अचार डालना हो या सिलाई, कढ़ाई बुनाई करनी हो| जहाँ भी अटक जाती हूँ तुम पता नहीं कहाँ से आ जाती हो और चुटकियों में मेरे मानस पटल पर अवतरित हो मेरी उलझन सुलझा कर अंतर्ध्यान हो जाती हो| “क्या कर रही है! नमक आधा कर! कड़वी हो जायेगी सब्जी|” “अरे! समझाया था न तुझे बॉर्डर के बाद स्वेटर की पूरी लम्बाई का जब एक तिहाई रह जाए तब आर्महोल के फंदे छाँटते हैं! अभी से छाँट देगी तो स्वेटर ऊँचा हो जाएगा ना!” “अरे इस फूल को लॉन्ग एंड शॉर्ट स्टिच से काढ़ ले शेडेड धागे से बहुत सुन्दर लगेगा|” और यूँ तुम्हारे जाने के इतने साल बाद भी मुझ पर तुम्हारे नियंत्रण की डोर अभी भी उसी तरह से कसी हुई है जैसे तब हुआ करती थी जब मैं स्कूल कॉलेज जाया करती थी| कभी तुम्हारे प्यार की, तुम्हारी परवाह की तब कद्र ही नहीं की मम्मी| आज सोचती हूँ तो मन पश्चाताप से और आँखें आँसुओं से भर जाती हैं| ज़रा-ज़रा सी बात पर मैं गुस्सा हो जाती थी| तुमसे रूठ जाती थी और अबोला ठान कर बैठ जाती थी अपने कमरे में| तब तुम कितना मनाती थीं, अपने हाथों से कौर बना कर मुझे खिलाती थीं और मैं निष्ठुर सी तुम्हारे हर प्रयास को निष्फल सा करती जाती थी| मुझे याद है शादी से पहले एक बार तुमसे बहुत नाराज़ हो गयी थी मैं| तुम कितनी स्नेहमयी हो, संवेदनशील हो, कोमल हृदय की हो सारी बातें झूठी लगती थीं| मुझे दुःख था जब तुम मेरे मन को नहीं समझ सकीं, मेरी पीड़ा को नहीं पहचान पाईं, मेरी व्यथा की गहराई नहीं नाप सकीं तो तुम्हारा कवियित्री होने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन मैं उस समय नहीं समझ सकी थी कि तुम इन सबसे ऊपर एक ‘माँ’ थीं जो कभी अपने बच्चों का अहित नहीं होने दे सकती ! वह बच्चों के जीवन में आने वाले संभावित खतरों को पहले ही भाँप लेती है और फिर मान अपमान हानि लाभ के समीकरणों को भूल वह सबसे पहले बच्चों को अपने सुदृढ़ और कठोर संरक्षण में छिपा लेती है फिर चाहे उसमें बच्चों को अपना दम घुटता सा ही क्यों न लगे| उस समय सारी दया माया भूल वह सिर्फ एक तटस्थ रक्षक होती है जिसे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों के हितों की रक्षा करनी होती है| अपनी उस नादानी के लिए मुझे आज भी बहुत संताप होता है मम्मी| उस समय तुम निष्ठुर नहीं हो रही थीं निष्ठुर तो मैं हो रही थी| उन दिनों की स्मृति को मैं अपने जीवन से मिटा देना चाहती हूँ लेकिन कोई ऐसा रबर या इरेज़र भी तो नहीं मिलता कहीं जो यह चमत्कार करके दिखा दे| मुझे याद है ज़िंदगी भर तुम अपनी हर नई साड़ी सम्हाल कर बक्से में रख देती थीं और तब तक खुद नहीं पहनती थीं जब तक पहले मैं उसे ना पहन लूँ| मेरी शादी के बाद भी इस परम्परा में कभी व्यवधान नहीं आया| जब मैं मायके आती तो सबसे पहले तुम्हारा संदूक खुलता और अपनी सारी नई साड़ियाँ तुम मुझे निकाल कर दे देतीं, “जो पसंद हो ले लो जो नहीं पसंद हो पहन कर नई कर दो फिर मैं पहन लूँगी|” अब वर्षों से यह सिलसिला बंद हो चुका है| लेकिन नई साड़ी देखते ही तुम्हारा सरल तरल चेहरा आँखों के आगे प्रगट हो जाता है और मेरे नैनों को भी तरल कर जाता है| दो महीने और बचे हैं ! पूरे ७६ वर्ष की हो जाऊँगी लेकिन मन अभी भी बच्चा ही है और तुम्हारे सानिध्य के लिये तड़पता है| याद आता है कि ज़रा सा ज्वर आते ही जहाँ बाबूजी डॉक्टर बुलाने के लिये उपक्रम करते थे तुम चुपके से राई नोन लाल मिर्चें मुट्ठी में दबा कर नज़र उतारने की जुगत में व्यस्त हो जाती थीं| बाबूजी को यही लगता था डॉक्टर की दवा का असर था कि मैं ठीक हो गयी लेकिन तुम्हारा विश्वास अडिग होता था कि मेरा ज्वर तुम्हारे नज़र उतारने की वजह से भागा है ! एक कविता तुम्हारे लिए लिखी थी आज तुम्हें ही समर्पित कर रही हूँ ! ममता की छाँव वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ जो बाबूजी की लाई हर नयी साड़ी का उद्घाटन मुझसे कराने के लिये महीनों मेरे मायके आने का इंतज़ार किया करती थीं , कभी किसी नयी साड़ी को पहले खुद नहीं पहना ! वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ जो हर सुबह नये जोश, नये उत्साह से रसोई में आसन लगाती थीं और मेरी पसंद के पकवान बना कर मुझे खिलाने के लिये घंटों चूल्हे अँगीठी पर कढ़ाई करछुल से जूझती रहती थीं ! मायके से मेरे लौटने का समय समाप्त होने को आ जाता था लेकिन पकवानों की तुम्हारी लंबी सूची कभी खत्म ही होने को नहीं आती थी ! वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ मेरा ज़रा सा उतरा चेहरा देख सिरहाने बैठ प्यार से मेरे माथे पर अपने आँचल से हवा करती रहती थीं और देर रात में सबकी नज़र बचा कर चुपके से ढेर सारा राई नोन साबित मिर्चें मेरे सिर से पाँव तक कई बार फेर नज़र उतारने का टोटका किया करती थीं ! वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ जो ‘जी अच्छा नहीं है’ का झूठा बहाना बना अपने हिस्से की सारी मेवा मेरे लिये बचा कर रख दिया करती थीं और कसम दे देकर मुझे ज़बरदस्ती खिला दिया करती थीं ! सालों बीत गये माँ अब कोई देखने वाला नहीं है मैंने नयी साड़ी पहनी है या पुरानी , मैंने कुछ खाया भी है या नहीं , मेरा चेहरा उदास या उतरा क्यूँ है , जी भर आता है तो खुद ही रो लेती हूँ और खुद ही अपने आँसू पोंछ अपनी आँखें सुखा भी लेती हूँ क्योंकि आज मेरे पास उस अलौकिक प्यार से अभिसिंचित तुम्हारी ममता के आँचल की छाँव नहीं है माँ इस निर्मम बीहड़ जन अरण्य में इतने सारे ‘अपनों’ के बीच होते हुए भी मैं नितांत अकेली हूँ ! न जाने कितना कुछ उमड़ता आ रहा है तुमसे कहने को मम्मी लेकिन जानती हूँ अब इस अरण्यरोदन का कुछ हासिल नहीं है| लेकिन यही सोच कर तसल्ली कर लेती हूँ कि अब तुमसे मिलने के दिन समीप आते जा रहे हैं| जो कुछ मैंने तुम्हारे जाने के बाद यहाँ मिस किया है वह सब कुछ तुम्हारे पास आकर सूद सहित वसूलूँगी| बहुत याद आती है तुम्हारी हँसी, तुम्हारी बातें, तुम्हारी कवितायेँ, तुम्हारे स्वादिष्ट व्यंजन और तुम्हारा प्यार भरा आँचल| मुझे सब कुछ जीना है एक बार फिर से तुम्हारे साथ| मुझे जल्दी आना है तुम्हारे और बाबूजी के पास| अब कभी रूठ कर नहीं बैठूँगी कोपभवन में यह वचन देती हूँ| इस बार मुझे क्षमा कर दो ना| तुम्हारी गोद में सोने को आतुर, तुम्हारी साधना साधना वैद 🙏🌹🤗🌹🙏

मेरी माँ का नाम ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' था ! 'किरण' उनका लेखकीय उपनाम था ! अपने समय की वे प्रख्यात कवियित्री थीं ! कवि सम्मेलनों में, इंदौर भोपाल रेडियो स्टेशन से और कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं की धूम रहती थी ! मालवा प्रदेश की साहित्यकारों में उनका नाम प्रसिद्ध था ! 🤗🤗🤗

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मां 

मां - यह शब्द याद आते ही याद आती है वह तारों भरी रात जब ताका करती थी मैं उनको मां की गोद में पड़ी हुई याद आती है वह रात जब उनके साथ गुड़मुड़ होकर सोते हुए उनकी नर्म मुलायम धोती का स्पर्श ले जाता था मुझे तारों के पार याद आते हैं वे दिन जब वह मेरा बस्ता उठाए हुए मुझे पुचकारते पुचकारते पहुंचा आती थी स्कूल तक याद आती है वह शाम जब खेलकर घर आते थे हम और आते ही पैर धोने को कहकर दीप जलाकर बिठा दिया करती थी सांध्य गीत गाने को हम सबको याद आती है हर बात हर क्षण हर पल जब दिखाती थी वह राह कहती थी चलना सतपथ पर रखना धैर्य विपत्ति में हार न मानना अंत तक पर चली गई वह एक दिन मुझे यूं ही अकेला छोड़कर ढूंढती रही उसे जिंदगी के हर मोड़ पर तभी अचानक अनायास ही मिल गई मुझे वह एक दिन एक नहीं कई रूपों में कभी संगी साथियों में कभी अपनी प्यारी बच्ची में तो कभी मां के ही लिखे पत्रों में....।

एक पुरानी फोटो भी मिली है,   जाने कहां विलीन हो गई मुझे अकेला छोड़कर.....

 डॉ मंजुला पांडेय

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